बेईमानों के नमक का, कर्जा बहुत था भारी

बेईमानों के नमक का, कर्जा बहुत था भारी,
चटी थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि कुर्सी के कच्चे चिट्ठे , किरदार खा गई ,
जालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे हुए थे चप्पल,लाचार की कहानी,
कि धूल में सने सब ,बेगार की जुबानी।
दफ्तर के जो थे मारे , अत्याचार खा गई ,
जालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
थी भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ्तर के सारे सारे , मक्कारों से थी यारी,
कि सच के सारे सारे , चौकीदार खा गई ,
जालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफसीस क्या करें हम, दफ्तर के सब अधिकारी,
दीमक से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
कि झूठ के वो सारे , व्यापार खा गई,
जालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
 


तारीख: 12.03.2024                                    अजय अमिताभ सुमन









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