भाग्य विधाता

उसका भाग्य विधाता
उसके पैरों से मारता है अपने दुर्दिनों के चक्र को
और
माथे के पसीने को  वाष्प बना
लिप्त हो जाता है कर्म में

गर्मी का दिन है
लोहा धूप में तप जाता है 
देह को आदत है जलने की और उससे शीतल जल निकालने की

अभी घड़ी की सुइयों की तरह घूमाना है पैर
अभी मन को
रखना है स्थिर

जितने प्रहार से वो अपने भाग्य को बदलता है
 उतने ही प्रहार से साइकिल के पैडल को

मन के निराशाओं के साथ
पैडल मारता उसका पैर उसकी हृदय धमनियों को तेज़ करता है
उसके ज़िन्दगी के काले गढ्ढे
उसकी पुतलियों के नीचे जम गए हैं डार्क सर्कल के रूप में
उसे ये लालसा नहीं कि
सड़कों के गढ्ढे की तरह इसे भी भरा जाए

समय चक्र की भांति
समय चक्र से जूझता चलता है एक रिक्शेवाले का पहिया।


तारीख: 12.04.2024                                    निधि गुप्ता









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