मैं अपमान काट लूँगा पर संस्कार नहीं बेचूँगा,
मैं वर्तमान काट लूँगा पर मुस्कान नहीं बेचूँगा
है मुझमें भी एक दीप्त प्रज्वलित, प्रखर रघुवंश
मैं लुटेर, चटोर, मृत, विचलित नृप -भूप नहीं
मैं बनवास काट लूंगा पर विलास नहीं भोगूँगा
मैं मुकदमा काट लूंगा पर विश्वास नहीं बेचूँगा
तुम कहते हो कि मैं सूर्य हूं! तो ये अंधेरा किस बात का है?
तेरे उदित शहर में, ये बखेड़ा किस बात का है?
यूं अंधेरी रात में, मैं कब तक भटकता रहूंगा?
सवेरे की आस में, मैं कब तक तड़पता रहूंगा?
मुझे शर्म आती है अब तेरे सूर्य होने पर,
मैं अंधेरा काट लूंगा पर अंधकार नहीं बेचूँगा
मैं अपमान काट लूँगा पर संस्कार नहीं बेचूँगा I