वो अक्सर,
अपनी खिड़की से उसका,
इंतज़ार देखती है।
हर दिन,
तय हो जैसे समय,
मुलाकात का चार पहर ,
किसी जन्म में।
अपना झिलमिलाता आँचल,
फैलाये रात,
माथे पर चांद सजाती है,
जाने किस,
दीदावर का इन्तज़ार करती है।
उसके मुहँ पर पड़ती,
छनती चांदनी उसकी आँखों में,
उतार देती है मिलती जुलती,
भीगी सी उसकी,
आधी अधूरी कहानी,
सिर्फ और सिर्फ इंतजार की।
फिर,
किसी सूरत,
बर्दाश्त नहीं होता,
उसे अपने,
दिल का अंधियारा।
एक दिन,
तुनक कर,
रात के माथे से चाँद,
उतार कर छिपा लेती है,
अपने दिल मे,
लिखती है चांदनी से,
दिल की दीवारों पर,
चन्द हर्फ़ किसी के इंतजार में।
मूंद कर अपनी,
भीगी भारी पलकें,
देती है सज़ा रात को इंतज़ार,
का चलन चलाने की,
बना देती है कुछ दिन,
अमावस के।
रात कुछ नहीं कहती,
खामोश रहती है,
वह समझती है सब कुछ,
जानती है वो लौटा देगी,
उसके माथे का चांद,
फिर से।
इंतज़ार के खत्म होने का,
इंतज़ार दोनो को है।