कुदरत के खेल भी कितने निराले हैं-ग़ज़ल

कुदरत के खेल भी कितने निराले हैं
कहीं पर अंधेरे कहीं पर उजाले हैं

कोई भूख से बेहाल यहां हैै तो
किसी के पेट में निवाले ही निवाले हैं

किसी को छांव ही छांव मयस्सर है
किसी के बदन धूप में हुए काले हैं

है आराम तहरीरे-मुकद्दर में किसी के
किसी के हाथों में मेहनतों के छाले हैं

किसी को जहरे-गम नसीब है तो 
किसी के नसीब में खुशियों के प्याले हैं

कोई दौलत से मालामाल यहां है तो
किसी के निकले हुए दिवाले हैं

किसी को इक मकां तक नसीब नहीं
और किसी के मकां में कई-कई माले हैं
 


तारीख: 18.04.2024                                    धर्वेन्द्र सिंह




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