गिरी के भीषण भार से, भयभीत ना संहार से, मैं तब भी था, मैं अब भी हूँ, मैं समर हूँ डिगता नहीं ।
मैं ऊर्ध्व हूँ, मैं मूल हूँ, अज्ञानता की भूल हूँ ।
मैं घना अंधकार हूँ, बढ़ता हुआ संहार हूँ ।।
सीता के अपहरण में हूँ, द्रौपदी के चीरहरण में हूँ ।
अर्जुन के अमोघ प्रण में हूँ, कुरुक्षेत्र के हर रण में हूँ ।।
शुंभ मैं, निशुंभ मैं, शिव का धधकता लिंग मैं ।
मैं हार में, संहार में, मैं हर तरफ हाहाकार में ।।
बालि का अतुलित बल हूँ मैं, शकुनि का बढ़ता छल हूँ मैं ।
अनुराग में मैं द्वेष हूँ, साधू बना लंकेश हूँ ।।
मंदोदरी के करुण विलाप में, गांधारी के प्रलाप में ।
मैं दिन में हूँ, मैं रात में, मैं अट्टहास विलाप में ।।
चाणक्य के अपमान में, द्रौपदी के लुटते मान में ।
निर्धन की बढ़ती कुण्ठा में, गांडीव की चढ़ती प्रत्यंचा में ।
मैं तब भी था, मैं अब भी हूँ, मैं समर हूँ डिगता नहीं ।।
प्रस्तुत सदा हर युद्ध में, वीरों के घटते बुद्ध में ।
मैं भोग में, मैं विलास में, मानव तेरे इतिहास में ।।
मारीच की मैं मरीचिका, विध्वंश की मैं विभिषिका ।
अशोभनीय मैं शोक हूँ, कलिंग में लड़ता अशोक हूँ ।
अविराम हूँ, मैं अनन्त हूँ, मानव का बढ़ता अन्त हूँ ।
मैं तब भी था, मैं अब भी हूँ, मैं समर हूँ डिगता नहीं ।।
कुरुक्षेत्र का जब रण सजा, अट्टहास कर मैं हँसा ।
निर्बुद्ध है ना जानते, अपने-अपनों को न मानते ।
रणबांकुरे तन के खड़े, अपने-अपनों से ही लड़े ।
चहुमुख भयंकर शोर था, गांडीव का वो जोर था ।
कटते हुए नर शीश थे, ईश्वर भी कुछ भयभीत थे ।
हैरान मैं हॅसता रहा, कुछ हो रहा यूँ युद्ध था ।
वीरों के प्रज्वलित तेज से, छुपता हुआ नभ सूर्य था ।।
है असत्य की मैं रोया नहीं, अपनों को मैंने खोया नहीं ।
अभिमन्यु के संहार पर, द्रौपदी के लुटते न्यार पर ।
रोया मैं सिसकी मार के, जग में बढ़े संहार पर ।।
थी खोज मेरी अमरता, भगवान सा मैं बन चला ।
मानव ठहर क्या कर रहा, भगवान मुझको ना बना ।।
अब थक गया इस शोर से, मैं चाहता हूँ अब बूझुँ ।
स्वाहा रूके, निर्भय पले, मन से ना कोई कठोर हो ।
पर जोर है कुछ अनभला, वो सींचता जलती शिखा ।
है उसके मन का अडिग स्वर, वो चाहता है मैं जीऊँ ।।
युद्ध के इस भोग से, ईश्वर मुझे अब मुक्ति दे ।
अस्तित्व मेरा ना रहे, वरदान दे, वो शक्ति दे ।
हे दीनबन्धु, हे नीति-निधान, धरती मांगे है अभयदान ।
धरती करुणा की प्यासी है, भागीरथ की अभिलाषी है ।
चछु के पट अब खोलो तुम, हे नीलकंठ कुछ बोलो तुम ।
हे गलमुण्ड घट-घटवासी, हे निर्विकार, हे अविनाशी ।
जग का अंधियारा दूर करो, हे पूण्य प्रकाश, हे हिमवाशी ।।