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शहर की फिज़ाओं में भी भय का माहौल है साहब। पिछले साल भी कोरोना था;
लॉकडाऊन लगा था पूरे देश में लेकिन तब वातावरण इतना भयावह नही था।
तब लोग लॉकडाऊन को भी खुशी के साथ जीते थे उसमें भी सकारात्मक सोच
रखते थे,एक-दूसरें को फोन करते सुख-दुःख साझा करते। खाने-पीने की नई-नई
रेशिपी एक-दूसरें से सोशल मीडिया के माध्यम से साझा करतें। पुराने जमाने के
गानों को सुनते,स्वयं भी सुनते और दूसरे को भी सुनातें। पुरानी यादें ताजा करतें
थें । सब लोग परिवार के साथ समय बीता रहें थें; मानों पुराना वक्त एक बार
फिर से लौट आया हो। टीवी पर रामायण व महाभारत के लौटने से डी डी चैनल
में फिर से बहार आ गयी थी। कोरोना के पहले दौर में, काफी मीठी यादें थी जो
सबों ने सहेज रखी थी दिल में। सबों ने एक-दूसरे से वादे किए कि फिर से मिलेंगे।
उस कोरोना काल में सरकार भी सजग थी; परिणाम ये रहा कि सरकार की सजगता व
आपसी सहयोग से कोरोना को नियंत्रित भी कर लिया गया, सब कुछ सही दिशा में चल
रहा था। लेकिन इस बार सरकार, विपक्ष व जनता सभी लापरवाह हो गये। सभी ने ये
मान लिया था कि कोरोना अब भारत से हमेशा के लिए जा चुका है और शुरु हो गयीं
लापरवाहियाँ।
हम सभी लोगों का गैरजिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार का ही परिणाम हमारे सामने कोरोना
इज रिटर्न के रूप में आया।

कोरोना की दूसरी लहर की शुरुआत में लोगों ने इसको गंभीरता से नही लिया,और
धीरे -धीरे कोरोना ने विस्तार लेना शुरू किया और जब तक लोग संभल पाते शुरू हो गया
मौत का तांडव।
दिन-रात रोग-वाहनि के सायरन का शोर,मन को विचलित कर रहा था आसपास के
लगभग सभी घर, कोरोना से प्रभावित,जो,हो रहें थें। किसी-किसी घर में तो पूरा का पूरा
परिवार कोरोना से प्रभावित हो रहा था।
नींद थी कि आँखों से गायब, पूरी रात बस जग कर ही गुजर रही थी;ऐसे में कभी
सायरन ,कभी कुत्तों के रोने की आवाज व बिल्लियों का आपस में लड़नें की आवाजें तो
रात को और भयावह बना देतीं।
मोबाइल ,जो कभी हमारा एकमात्र साथी हुआ करता था,हमारे सुख-दुःख में विशेष रूप
से, पिछले लॉकडाऊन में, इस बार के लॉकडाऊन में हमारे लिए गले की हड्डी समान थी
ना उगले, ना निगले। सोचता चलो अपनों से ना मिल पा रहें हो तो क्या! कम से कम
उनकी आवाज ही सुन लें, मगर वहाँ भी हालात ऐसे थें कि फोन उठते ही दुःखद खबर,और
मन भय से ग्रसित हो जाता और उदास भी।
छोटे-छोटे बच्चे अनाथ हो गये,कुछ ने आपदा में अवसर तलाशा और रिश्तेदार
बनकर आ गयें। नए-नए समाज सेवक उभरें,कुकुरमुत्तों की तरह, अनाथ बच्चों की
सहायतार्थ,अच्छा लड़कों की सहायतार्थ हेतु नही बल्कि लड़कियों की सहायतार्थ हेतु;
आपदा में अवसर की तलाश।
हालांकि इन सब में चिकित्सकों का कार्य सराहनीय रहा इसमें किसी को किसी प्रकार
संदेह किसी को भी नही होना चाहिए था,परन्तु हर पेशें में अगर अच्छे लोग हैं तो बुरे
लोग भी हैं; हालाँकि बुरे लोग होते तो कम हैं,पर किसी पेशे पर से लोगों का विश्वास उठाने
के लिए ये लोग कम होते हुए भी भारी पड़ जातें हैं। ऐसे लोगों ने भी आपदा में अवसर
तलाशने में कोई कसर नही छोड़ी ।
क्या एंबुलेंस, क्या श्मशान, क्या मेडिकल सब जगह पर लोगों नें आपदा में अवसर को
तलाशने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

मेरे घर में एक महिला झाड़ू-पुछा व बरतन धोने का काम करती थी नाम
था शीला, हमारे घर की सदस्या सी थी हमेशा घर का ख्याल रखती थी उसका
पति भी दिहाड़ी का काम करता था दो बच्चें थे; दोनों ही लड़कियाँ थी।एक पाँच
साल की व दूसरी तीन साल की दोनों ही घर के पास के पब्लिक स्कूल में पढ़ने
जातीं थीं, हालांकि आप आश्चर्यजनक तरीके से मुझसे प्रश्न कर सकतें हैं कि
दोनों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी तो नही थी,फिर भी वो अपनें बच्चों को
पब्लिक स्कूल में कैसे पढ़ाई लेते थें? और आप प्रश्न कर सकतें हैं, क्योंकि आप
जानते है कि भारत में शैक्षिक भेदभाव का एक आधार आर्थिक भी है सरकारी
स्कूल में शैक्षिक गुणवत्ता का अभाव है और पब्लिक स्कूल बनिये की दुकान
बन चुकी हैं जहाँ वही बच्चे पढ़ सकतें हैं,जो धन खर्च कर सकतें हैं ।
लेकिन शीला व उसका पति दोनों ही समझदार थें वो शिक्षा के महत्व
को भली-भाँति समझते थे इसलिए अपनो दोनों बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देते
।इसके लिए उन्होंने कभी भी किसी प्रकार का कोई समझौता नही किया।
सब कुछ सामान्य ही चल रहा था पर इस कोरोना ने हर किसी को
प्रभावित किया, किसी को स्वास्थ्य से और किसी को जन और धन से।
बीच में कोरोना भी समाप्ति पर था इसलिए सभी लोग अपनी सामान्य
दिनचर्या में लौटने लगें थे।लग रहा था सब कुछ सामान्य हो रहा
है।अर्थव्यवस्था भी धीरे-धीरे सामान्य की ओर लौट रही थी।जीवन भी अब शनेः-
शनैः पटरी पर लौट रसा था शीला भी वापस काम पर आने लगी थी पिछले
ईसाल भी उसको काम पर आने से तो मना कर दिया था पर उसको आर्थिक
सहायता अनवरत चल रही थी।
परन्तु अचानक धीरे-धीरे कोरोना के केस फिर से बढ़ने लगे थें। होली के
बाद से इसमें तेजी आने लगी थी।अभी भी लोग इसे गंभीरता से नही ले रहे थे।
राजनैतिक पार्टियाँ चुनावी रैलियों में व्यस्त थे ,आम जनता त्यौहारों और
उत्सवों में व्यस्त थें ,कुम्भ का मेला चरम पर था। सत्ता पक्ष और विपक्ष तू-

तू,मैं-मैं करने मे व्यस्त रहे। अधिकारीगण की तो खैर सुनता ही कौन है। राज्य
व केन्द्र की सरकारें भी कभी वैक्सीन-वैक्सीन पर उलझी,कभी ऑक्सीजन पर
उलझी। रही सही कसर दवाईयों के विक्रेताओं और उत्पादकों ने पूरी कर दी।हर कोई
जिसको जहाँ पर आपदा में अवसर आया उसने वहीं फायदा उठाया।मानवता भी शर्मसार
हो रही थी और प्रकृति रो रही थी।
इधर शीला ने भी काम पर आना बन्द कर दिया था। हम ये सोचकर कि वो अपने घर
में होगी व परिवार के साथ स्वस्थ्य एवं कुशल से होगी उस दिशा में सोचना
बन्द कर रखा था; परन्तु हमने ये निश्चय जरूर कर लिया था कि हम शीला व
उसके परिवार की आर्थिक सहायता जारी रखेंगे,ताकि उन्हें आर्थिक समस्याओं
का सामना ना करना पड़े।
इस दौर में हर कोई स्वयं के लिए ही चिन्तित था ,कहाँ किसी और के बारे में सोच ही
कहाँ पा रहा था। हम भी इससे अछूते नही थें,क्योंकि हमारे कई अपने कोरोना से
प्रभावित थे। हमारे दिल के एक बहुत ही करीबी कोरोना से चल गुजरे थें सो
मन उदास था।समय धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था
एक दिन शीला का फोन मेरे श्रीमती के मोबाइल पर आया,उसकी
आवाज लड़खड़ा रही थी। ऐसा लग रहा था मानो उसकी सॉसे उखड़ रही हो वो
बहुत ही मुश्किल से कुछ बोल पा रही थी। उसने हॉफते-हॉफते बताया कि हमारा
पूरा परिवार कोरोना से प्रभावित हो चुका था और मेरे पति उसमें चल बसे।
मेरा भी अब कोई भरोसा नही लगता। मैडम जी आपसे एक अनुरोध है कि
मेरे ना रहने पर बच्चे अनाथ हो जाएँगे। मैडमजी आप हमारे बाद इन बच्चों का
ध्यान रख लीजियेगा। मेरी पत्नी ने पूछा कि तुम लोग कहाँ हो बच्चे कहाँ है
तो उसने जो बताया वह काफी पीड़ादायक था। उसके मुताबिक करीब हफ्ते भर
पहले सबसे पहले इनको बुखार आया हम लोग अस्पताल में गयें तो पता चला
कि वो कोरोना से प्रभावित हो चुकें थें। इसके बाद इनके साथ मेरे व बच्चों का
भी कोरोना टेस्ट हुआ ये और मैं तो कोरोना से प्रभावित हो गये पर बच्चों को
कोरोना का कोई प्रभाव नहीं था।। डाँक्टर ने हम दोनों को घर में ही रहकर

स्वयं की देखभाल करने की सलाह दी। हम लोग घर में ही रहकर डॉक्टर की
सलाह के आधार पर स्वयं की देखभाल करने लगे। परसों रात अचानक इनकी
तबियत ज्यादा बि
गड़ने लगी तो हमनें डॉक्टर से सम्पर्क किया तो डॉक्टर साहब ने इन्हें तुरंत
अस्पताल में भर्ती करने को कहा हम लोगों ने अस्पताल प्रशासन को एंबुलेंस के
लिए सम्पर्क साधा तो अस्पताल प्रशासन ने एंबुलेंस की उपलब्धता ना होने की
बात कही। मेरे काफी अनुरोध करने पर भी वहाँ से मुझे निराशा ही हाथ लगी
,यहाँ इनकी तबियत बिगड़ती ही जा रही थी,रात भी बढती ही जा रही थी।मैंने
डॉक्टर साहब से सम्पर्क कर एंबुलेंस की अनुपलब्धता की बात बताई और इनके
स्वास्थ्य के और गिरने की बात कही ,साथ में मैंने डाँक्टर साहब से घर आकर
अपने पति को देखने का अनुरोध किया तो उन्होंने पचास हजार रूपये में घर
आकर देखने की बात कही। हमारे पास इतने रूपये कहाँ थे? खैर हमारे मुहल्ले
में एक प्रभावशाली व्यक्ति के पास गयीं, जो कि जिला पंचायत सदस्य थें।
किसी ने बताया था कि उनकी भी अपनी पाँच एंबुलेंस हैं ,मैंने उन्हें पूरी बात
बताई व एंबुलेंस की सुविधा उपलब्ध कराने का अनुरोध किया तो उन्होंने भी
बीस हजार रूपये किराया एंबुलेंस के लिए मांगे।आखिर थक हार कर पति को
लेकर पैदल ही अस्पताल जाने लगी,वो तो भला हो पड़ोसी रिक्शावाला का जो
हम लोगों को अपने रिक्शा में बैठाकर अस्पताल ले गया व उसने इस सेवा के
बदले एक पैसा भी नहीं लिया ।इस महामारी के समय में जहाँ मानवता
शर्मसार हो रही थी हर कोई आपदा में अवसर तलाश रहा था, वही वो गरीब
रिक्शावाले ने मानवता को शर्मसार होने से बचा लिया था।
खैर हम लोग अस्पताल पहुँच गये पहले तो अस्पताल वालों ने मेरे पति को
भर्ती करने से मना कर दिया; परन्तु काफी मिन्नत करने पर अस्पताल के
फर्श में एक कोने में उन्हे भर्ती तो कर लिया; अब मेरी भी तबियत बिगड़ने
लगी तो मैं भी अस्पताल में भर्ती हो गयी , परन्तु, हमें अस्पताल में बिस्तर
नही मिल पाया इसलिए जमीन में ही हम दोनों पड़े रहें।म कभी-कभी कोई आ

जाता तो ठीक वरना ऐसे ही पड़े रहते । कल रात इनकी सॉसे उखड़ने लगी
अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी थी जो जितने ज्यादा रूपये दे रहें थे उन्हें तो
तत्काल ऑक्सीजन मिल जा रही थी हमारे पास इतने पैसे थे नही सो इनको
समय पर ऑक्सीजन नही मिल पाया और ये चल बसे और सुबह अस्पताल
वालों ने इनको पोलीथिन मे लपेट कर उनका अंतिम संस्कार कर दिया,मैडम जी
इनके अंतिम संस्कार करने में भी बड़ों दिक्कत आ रही थी बाद में श्मशानघाट
की एक पर्ची मुझे थमा दिया था,जिसमें अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया के
नाम पर एक लाख का बिल था ।मैडम जी उस वक्त मैं क्या करती अपने
बदन के गहने मैंने अस्पताल प्रशासन को दे दिये। , बीबीजी लग रहा है मेरा भी
अंतिम समय आ रहा है; ये कहकर उसकी आवाज लड़खड़ाने लगी थी। और
उसकी आवाज धीरे-धीरे बन्द हो रही थी, फोन पर अब उसकी उखड़ती हुई सॉसों
की आवाज आ रही थी ।लड़खड़ाने हुए शीला के अंतिम शब्द थें,मैडम जी
हमारे बाद हमारे बच्चों का क्या होगा? हमारे तो कोई रिश्तेदार भी नहीं है जो
बच्चों की देखभाल हमारे जाने के बाद करें ये कहते-कहते उसकी आवाज
शान्त हो गयी ।पत्नी फोन से बोलती रही शीला हैलो शीला ,परन्तु वहाँ से
कोई आवाज़ नही थी, थी तो बस लड़खड़ाती सॉसे की आवाज। पत्नी फोन पर
शान्त रह गयी, वो शीला की थमती सॉसों की आवाज को सुने जा रही थी,
लाचार व विवश। पत्नी की आँखों से लगातार अश्रुधाराएँ बह रही थीं। मेरा मन
ये सोचकर दुःखी था कि अभी ना जाने कितना मन और रोएगा । शीला के
अंतिम शब्द, फोन का स्पीकर ऑन होने के कारण, मैं भी सुन पाया था और
शायद बच्चों के प्रति उसकी आशँका में कही ना कहीँ हमारे प्रति विश्वास छुपा
हुआ था ,जो मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा था।मैनें व मेरी पत्नी ने एक-दूसरे से
बात कर शीला के बच्चों के आगे की देखभाल का दायित्व स्वयं लेने का
निश्चय कर लिया था और प्रतीक्षा कर रहें थें कि कब स्थिति थोड़ी सी भी
सामान्य हो और हम बच्चों को अपने पास अपनें घर ले आएं सदा-सदा के
लिए।

परिस्थितियों के वश हम लोग भी विवश थे और प्रतीक्षा कर रहें थें कि कब
स्थिति सामान्य हो और कब हम शीला के बच्चों को देखने जाएँ । समय
गुजरने लगा स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो रही थी ।आज काफी दिनों के बाद,
मन बनाकर हम शीला के घर गयें, शीला के घर में ताला लगा हुआ था। घर
में कोई भी नहीं था।, ना बच्चें और ना ही सामान। हमनें आस-पड़ोस में शीला
के बच्चों के बारें में पूछताछ करी तो लोगों ने बाद शीला के दोनों बच्चों
को उनके सससुराल से आए उनके रिश्तेदार सामान सहित अपनें साथ ले
गयें। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि शीला से जब फोन पर बातचीत हुई थी
तो उसने तो अपनें किसी भी रिश्तेदार के ना होने की बात कही थी; ना अपने
मायके की ओर से और ना ही ससुराल की ओर से। हमारे सामने अब विकट
समस्या थी कि कैसे और किस आधार पर हम उनके बच्चों की जानकारी
प्राप्त करें। हमनें भी सब कुछ नियति पर छोड़ दिया था,इस विश्वास पर कि
बच्चे जहाँ भी हों ,खुश रहें और उनका भविष्य सुखमय हो। हम दोनों ईश्वर
से मन ही मन में बच्चों की शुभता की कामना कर, भारी मन से वहाँ से
निकल अपनें घर को लौट रहे थें,तभी मेघाच्छादित आसमान से बारिश की कुछ
बूँदें हमारे बदन पर गिरी, शायद वह शीला व उसके पति के आँसू थे, जो
अपने बच्चों के लिए बह रहे थें और हमारे लिए उनका हम पर किये गये
विश्वास के टूटने से अफसोस प्रकट कर रहें थें ।


तारीख: 10.04.2024                                    हिमांशु पाठक









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