जिस परिंदे के परों में होंसला रहता है
ठोकरों में फिर उसी के आसमा रहता है
हर घडी बनते बिगड़ते हैं जहाँ में रिश्ते
ज़िन्दगी भर कौन किसका आशना रहता है
इस कदर दुश्वार क्यों यह ज़िन्दगी लगती है
ओढ़कर हर शख्स खुद ही कफ्न सा रहता है
ज़िन्दगी भर ढूंढता ही रह गया मैं उसको
कौन है वो शख्स जो मुझमे छिपा रहता है
सोचकर ये ही दवा कोई नहीं ली मैंने
ज़ख्म कोई ज़िन्दगी भर कब हरा रहता है