प्यार के जज़्बात को क्या क्या समझता था

प्यार के जज़्बात को क्या क्या समझता था, 
इक वो ही था जो मुझे  अपना समझता था.

मेरी खुशी में  ही  वो  अपनी खुशी मानता, 
मेरे हँसते चेहरे को वो आईना  समझता था.

जब कहा था मैंने खुद से दूर  होने की बात, 
इस  बात  को  केवल  सपना  समझता था.

जब  कभी  जिक्र  हुआ  था  बेवफाई  का, 
समाजों को  वो केवल  चेहरा समझता था.

नहीं जाता  था  वो  इबादत  के लिए कहीं, 
मुझी को  वो  मक्का  मदीना समझता था.

सारी  चमक  फीकी  थी  जिसके  सामने, 
इश्क को वो चमकता नगीना समझता था.

निरंतर बहती रहती है जिसका अंत नहीं, 
मुझे  वो  प्रेम की पवित्र गंगा समझता था.

सच्चे  दिल  से   चाहा  था   मुझे  उसने , 
खुद को  कन्हैया  मुझे  राधा समझता था.


तारीख: 16.06.2017                                    देवांशु मौर्या




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है