खौफ़नाक मंज़र

अजीबोगरीब खौफ़नाक मंज़र देख रहा हूँ
चलते फिरते खुबसूरत खंडहर देख रहा हूँ ।
मिलतें हैं मुस्कुराकर हाथों में हाथ डाले ये
मगर ज़मीं दिल की बेहद बंज़र देख रहा हूँ ।
किश्तियाँ डूबती कहाँ अब किनारों पे आके
साहिलों से सूखता हुआ समंदर देख रहा हूँ ।
आइने यारों चिढाने लगते हैं देखकर मुझे
रोज़ खुद का ही अस्थि पंजर देख रहा हूँ ।
क़त्ल कर देता है जो कैफ़ियत बचपन से
हर बच्चे के हाथ में वो खंजर देख रहा हूँ ।
मेरी हस्ती भी अजीब दो राहे पर खड़ी है
हुई है अपनी गती साँप छ्छुंदर देख रहा हूँ
 


तारीख: 07.02.2024                                    अजय प्रसाद









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