किस दौर में जी रहें हैं ये क्या हो रहा है
सियासत बेफ़िक्र है और अवाम रो रहा है।
मिलकियत जिनकी,हैं मातम वही मनाते
और वक्त बहती गंगा में हाथ धो रहा है।
मुश्किलें तो मशगूल हैं महफिलें ज़माने में
मसीहा मूंद कर आँखे चुपचाप सो रहा है।
गज़ब अंदाज़ है गरीबी में जीने वालोँ का
होने देता है उसके साथ,जो कुछ हो रहा है ।
तू क्यों अजय इतनी बेगारी करता रहता है
बंज़र गजलों में हालात के बीज बो रहा है ।