पप्पू पास हो गया

बाबू रामलाल उन्हीं दिनों से हाई टंेन्शन तारों के नीचे रह रहे हैं  जब से अखबारों के मुख्य पृष्ठों पर प्रधान मंत्री की फोटो या ब्यानों की बजाय 100 से अधिक बच्चों की छोटी छोटी फोटो छपने लगीं थी और हर फोटो के नीचे  उनके मार्क्स लिखे होते -99.9 प्रतिशत । कोचिंग सेंटर के मालिक की फोटो बिल्कुल संेटर में होती और नीचे एकेडमी का नाम बड़े बड़े अक्षरों में लिखा होता।
        मां दा लाडला, हर क्लास में ब्रेकें लगा रहा था। बाबू रामलाल , छोटे बाबू, बड़े बाबू और फिर सुपरिंटेंडेंट के पदों की सीढ़ियां चढ़ते हुए सरकारी दफतर में सुशोभित थे ।  अक्सर कई बड़े अधिकारियों की झिड़कियों, चापलूसियों, चमचागिरी, गीफटोलॉजी वगैरा वगैरा के जुगाड़ों से अपनी कुर्सी संभाले हुए थे। कई बार ‘ ऊपर तक जाता है ’ जुमले के सहारे  रिश्वत कांड में बरी होते रहे। और ऊपर वालों ने भी पूरा साथ दिया। जब भी कोई गलती करत,े झाड़ पड़ने पर एक ही संकल्प लेते कि हर हाल में पप्पू को आई.ए.एस बनाउंगा और अपनी बेइज्जती का पूरा पूरा बदला लंूगा। चाहे मुझे जाति बदल कर  , अनुसूचित बन कर , एफीडेविट देकर स्पेशल कैटेगरी में इसे एग्जाम दिलवाना पड़े।  इधर पप्पू था कि कोरोना की तरह मानता ही  नहीं था। वह ट्यूशनों, कोचिंग सेंटरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बावजूद , हर क्लास में गोते लगाता रहा। हर बार कहता- पापा इस बार पास होके दिखाउंगा । मेरी मोटर बाइक पक्की। और बाबू रामलाल का खर्चा बचता रहा। हर बार पिता -पुत्र में शर्त लगती। बाबू कहते- बर्खुरदार पास हो गया तो बाइक वरना ऑटो रिक्शा!
       एक दिन चिर प्रतीक्षित रिजल्ट आ ही गया। पप्पू को सरकार पर पूरा भरोसा था कि जो कहती है वो करती है। वो है तो ‘सब मुमकिन ह’ै जैसे नारों पर भरोसा था कि इस साल वैतरणी पार हो ही जाएगी। कुंभ का मेला नहीं लगेगा। हुआ भी वही। अखबार के फ्रंट पेज पर पप्पू की भी फोटो शोभायमान थी। कहावत है कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को नहीं मिलता और पप्पू को उम्मीद से ज्यादा और वह भी  छप्पड़ फाड़ के मिला यानी 99.9 प्रतिशत। उसका नाम ऐसे चमक रहा था मानो ओलम्पिक में कांस्य नहीं, सिल्वर नहीं ,सीधा गोल्ड मेडल मिला हो।
      बाबू रामलाल के कुलीग्स बधाईयां देने और पार्टी लेने में बिजी हो गए। मिसेज लाल की किटट्ी सहेलियां उसी दिन , उनके घर पर स्पेशल किटट्ी की फरमाइशें करने लगीं। मोबाइल थे कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। पप्पू ने भी अखबार की दस प्रतियां खरीदी। बाजार में लहराता हुआ ऐसे निकला मानों कोई इलैक्शन जीत लिया हो। लेकिन बाजार के किसी आदमी ने उसे भाव नहीं दिया क्योंकि रिजल्ट के इस महाकुंभ में सब नंेगे थे। अखबार की फोटो खींच कर वह  हर जगह, हर रिश्तेदार को फारवर्ड करता रहा।
शाम को बाबू रामलाल ऑफिस से लौटे। पप्पू द्वार पर स्वागत के लिए खड़ा था। बाबू रामलाल भड़साए, ‘तू क्या सोच रहा था......बाबू साबासी देंगे.....मिठाई का डिब्बा लाएंगे.....हार पहनाएंगे ? ये तो होना ही था। मत्था टेक कोरोना देव को। जो न आता तो ये दिन तेरे जैसे निकम्मे कैसे देखते?
       पप्पू के चेहरे की घड़ी जो सुबह से 10 बजकर 10 मिनट पर अटकी हुई थी ,सीधे घूम कर सवा आठ पर आ गई। बाबू रामलाल अपने लाल को गहरी निगाहों से देखते हुए चालू हो गए, ‘रिजल्ट होते थे हमारे जमाने में। प्राईमरी तक तो 31 मार्च के दिन असेम्बली ग्राउंड में एक मास्टर जी लंबा सा रजिस्टर पकड़ कर बच्चों के नाम पुकारते। सुरेश रोल नम्बर 10- पास। रमेश रोल नम्बर 11- फेल। आज की तरह पेपर लीक की तरह रिजल्ट पहले लीक नहीं किया जाता था । उधर पेरेंट्स भी लडडुओं का लिफाफा लिए खड़े होते  थे। किसकी लाटरी निकलेगी यह उसी वक्त पता चलता। जो बच्चे लुढ़क जाते, उनके  पिता श्री स्कूल में ही उसकी छित्तर परेड शुरु कर देते। कई अपने साहिबजादों की कुटाई - ठुकाई करते हुए सार्वजनिक शोभायात्रा इश्टाईल में बाजार से घुमाते हुए घर ले जाते ताकि मेहनत न करने वाले धुरंधर ऐसे लाइव विज्ञापन देखकर सुधर जाएं।
       चौक वाले कालू हलवाई इतने लडड्ू साल भर न  बेचता जितने उस दिन बिक जाते। जैसे चुनाव में कोई जीते ,कोई हारे ढोली का दिन चंगा। मैट्र्कि के रिजल्ट का आलम ही कुछ और होता। फोन भी आम नहीं थे।  नारंगी रंग के छोटे से तोते पर पूरा यकीन होता था जिसे सब उंगली पर बैठा कर यही पूछ पूछ कर उसे  बोर कर देते,‘तोते तोते - मैं पास कि फेल ?’ तोते से तब तक पूछते रहते जब तक बेचारा उड़ कर पास होने की कन्फर्मेंशन न दे देता।
      मैट््िरक का रिजल्ट अखबार में ही आता। रिजल्ट से पहले मास्टरों तक की नींद उड़ी होती। परीक्षार्थी जगराता करते। मन्नते मांगते। हमारे नगर में अखबार नौ बजे वाली बस में आते। उस दिन आधा शहर बस को रिसीव करने ऐसे पहुंचता मानो बारात आनी हो। अभी अखबार वाला बंडल बस के अंदर ही होता, कई आशावादी वालंटियर उसे कंधे पर लादकर तेजी से न्यूजपेपर वाली दूकान पर ढो देते। बंडल रास्ते में ही उधड़ जाता। सबसे पहले उन दिनों अम्बाला से छपने वाले अंग्रेजी बखबार के चीथड़े उड़ जाते। एक लड़का स्टूल पर खड़ा होकर रिजल्ट एनाउंस करता। रोल नंबर 10991 पास। 92 गायब है। 93 पास......। देखते ही देखते सारे अखबार लुट जाते।
       पप्पू ने ये बातें एक बार नहीं , सालों साल चलने वाले कई धारावाहिकों की तरह कई बार सुनी थी। उसे बाबू राम लाल सी. आई .डी धारावाहिक के ए .सी पी  प्रद्युमन की तरह लगने लगे थे जो हर बार एक ही डायलाग बोलता है-‘दया कुछ तो गड़बड़ है।’ 
   इस बार उसने सबसे  पहले सरकार का ,फिर भगवान का धन्यवाद किया कि वह आखिरकार पास हो ही  गया वो भी फर्स्ट क्लास फर्स्ट।
      हालांकि बाबू रामलाल खुद लुड़कते पुड़कते] कई बार पास होते होते  बचे थे। हमेशा थर्ड क्लास थर्ड रहे। वो तो भला हो उनके पिता जी के एक वकील दोस्त का जिन्होंने एक जज की सिफारिश से उन्हें एक लोयर डिवीजन क्लर्क भरती करवा दिया था वरना वे भी कहीं पकौड़े तल रहे होते। परंतु उनका सपना हमेशा यही रहा कि या तो उनका पप्पू आई. ए. एस बने या फिर राष्ट्र्ीय पप्पू बनकर नाम  कमाए।


तारीख: 15.03.2024                                    मदन गुप्ता सपाटू









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