क्रिकेट

किसी भी आम हिंदुस्तानी की तरह अब्दुल भी क्रिकेट का बहुत बड़ा प्रशंसक था। क्रिकेट तो जैसे उसकी रग-रग में बहता था। बचपन में मौहल्ले में गली के लड़कों के साथ क्रिकेट खेलने और फिर जवानी में उसे टीवी पर देखते वह उसे किसी माशूका की तरह प्यार करने लगा था। ऑफिस से आने के बाद और छुट्टी के दिनों में वह टीवी पर क्रिकेट मैच देखते ही अपना दिन गुज़ारता था। कभी-कभी उसके इस क्रिकेट प्रेम से उसकी बीवी इतनी ख़फा हो जाती कि उसे बाहर भेजने के लिए टीवी का पलक हटा देती। लेकिन वह उसकी इस हरकत कभी खफ़ा नहीं होता था क्योंकि वह अपनी बीवी से बहुत मौहब्बत करता था। अभी तक उसकी ज़िंदगी इन्हीं दोनों माशूका और बीवी के बीच खुशहाल बीत रही थी। 

वह टीम इंडिया का बड़ा समर्थक था कि उसका एक भी मैच नहीं छोड़ता। सब मैच देखता। चाहे वह दिन में हो या रात में। पूरा का पूरा। अगर कोई मैच काम वाले दिन होता तो उस दिन वह दफ्तर से छुट्टी ले लेता। और अगर रात में होता तो उसे देखने के लिए वह रात भर जागता। उसका क्रिकेट में बस टीवी तक देखने तक ही सीमित नहीं था। वह क्रिकेट से संबंधित आने वाली सभी खबरों को भी बड़े ध्यान से पढ़ता था। सुबह ही वह सबसे पहले इलाके के तीनों मशहूर अखबारों के खेल पृष्ठ पढ़ डालता। जब कभी वह बाजार जाता तो क्रिकेट सम्राट मैगज़ीन खरीदना कभी न भूलता। उसे भारतीय टीम के वर्तमान और भूतपूर्व खिलाडियों के साथ-साथ विश्व अन्य टीमों के बेहतरीन बल्लेबाजों और बोलरों के बारें बहुत अच्छी जानकारी थी। मसलन किस खिलाड़ी ने कब खेलना शुरु किया? उसने अपना पहला मैच किस फॉर्मेट में किस टीम के खिलाफ़ खेला? उस मैच में उसका प्रदर्शन कैसा रहा? उसने कितने रन बनाएं, कितने विकेट लिए, अब तक वह कितने मैच खेल चुका और उन मैचों में उसने कितनों शतक बनाएं और कितनों में वह शून्य पर आउट हो गया? इसी के साथ वह टीम इंडिया में खेलने वाले हर खिलाड़ी की जन्म तिथि, जन्म स्थान, पढ़ाई, उनकी पसंद-नापसंद, अफेयर्स और शादी तक बारे में जानता था। चाहे कोई खिलाड़ी कितनी ही नया क्यों न हो। उसे हर किसी के बारे में मालूम रहता।

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जब कभी दफ्तर में साथियों के बीच, पार्टी में दोस्तों के बीच या मौहल्ले के लौंडों में क्रिकेट को लेकर चर्चा होती तो उसके केंद्र में अब्दुल ही होता। वह उनके हर सवाल का धड़ल्ले से जवाब देता। अगर कभी किसी मैच या सीरीज में टीम इंडिया हार जाती तो उसे अपनी टीम के खिलाड़ियों का बचाव करना भी आता था। इस पर वह कहता- “खेल का नियम ही हार जीत। अगर कोई एक बार हारता तो वह उससे अगले दस बार जीतने का हुनर सीखता। अगर इस वह हार गए तो क्या हुआ। इंशाअल्लाह, अगली बार वह जरुर जीतेगी।“ 

हालाँकि वह जानता था कि इस्लाम घर में कोई मूर्ति रखने या किसी जानदार मख़लूक की तस्वीर लगाना की इजाज़त नहीं देता। वह इसकी सख़्ती से मनाही करता है। फिर भी उसने अपने कमरे में बैड के ठीक सामने सचिन तेंदुलकर का एक बड़ा सा पोस्टर लगा रखा था। जिसमें वह किसी मैच में शतक लगाने के बाद खुशी से अपना बल्ला ऊपर उठाए था।

2011 ग्यारह वर्ल्ड कप के सेमीफाइनल मैच में जब टीम इंडिया ने पाकिस्तान को हरा दिया तो वह खुशी से उछल पड़ा था और घुटनों के बल बैठकर सज्दा करके अल्लाह का शुक्र अदा किया था। इस मैच की जीत पर पूरी देश में दीपावली जैसा माहौल था। देश के साथ शहर में भी पटाखे और अनार बम फोड़े जा रहे थे। जीत खुशी मनाने में अब्दुल भी पीछे नहीं रहा था। उनसे पूरी मौहल्ले में मिठाई बटवाई थी। मदरसे की बच्चों की दावत की थी और घर में कुरान खुवानी भी करवाई थी। उस दिन वह इतना खुश था कि खुशी के मारे वह फूला नहीं समा रहा था। और बार-बार उसकी आँखों से आँसू छलक पड़ते। 

मिठाई बाटने के दौरान जब एक शख़्स ने उससे पूछा- “अरे भाई, सेमीफाइनल ही तो जीता है। अभी वर्ल्ड कप बाकी है। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी मिठाई का मज़ा ही किरकिरा हो जाए।“ तो उसने फटाक से जवाब दिया- “अरे नहीं दोस्त, पाकिस्तान को जीत लिया तो समझो वर्ल्ड कप जीत लिया। हमारे लिए यही वर्ल्ड कप है। अब चाहे हमारी टीम वर्ल्ड हार भी जाए, हालाँकि ऐसा होगा नहीं। अगर हो भी गया तो मुझे कोई गम न होगा।“

इसके बाद जब वह दफ्तर गया तो वहां भी अपने साथ मिठाई का डिब्बा ले गया। वहाँ पहुँचकर सबसे पहले उसने अपने सभी साथियों को टीम इंडिया की पाकिस्तान पर जीत की मुबारकबाद दी। फिर उन सबका मुँह मीठा कराया। इसी दरमियान उसके बॉस भी आ गए। जो अभी पिछले दिनों ही इस सरकारी विभाग में तबादला होकर आए थे। अपने मातहतों से परिचय लेने और देने के रस्म के बाद उन्होंने उनसे ज्यादा रब्त नहीं रखा था। बस काम पड़ने पर ही उनसे बाते करते। अब्दुल ने सोचा कि चलो इसी बहाने बॉस से एक ओर मुलाकात करने का मौका मिलेगा। वह दोस्तों को मिठाई खिलाने के बाद डिब्बे को लेकर बॉस के केबिन में जा घुसा। उनके सामने मिठाई का डिब्बा करते उसने कहा- “ये लीजिए सर, मुँह मीठा कीजिए।“

“किस खुशी में?”, डिब्बे से मिठाई का एक टुकडा उठाते हुए उन्होंने पूछा।

“सर, सेमीफाइनल में भारत की जीत की खुशी में।“

“तो इसमे तुम्हे किस बात की खुशी? तुम्हे तो पाकिस्तान के हारने का दुख होना चाहिए।“

“नहीं सर, मुझे उसके हारने से बहुत खुशी हुई है।“

इस पर बॉस ने कोई जवाब नहीं दिया और मिठाई के टुकडे को डस्टबीन में डाल दिया। 

अब्दुल को बॉस का यह व्यवहार बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। वह उनके केबिन से निकल आया। क्षुब्ध होकर अपने कुर्सी पर बैठ गया और विचारों में खो गया। क्या वह दूसरे लोगों की तरह अपने देश प्यार नहीं करता? क्या उसका बचपन यहां नहीं बीता? क्या उसका घर यहां नहीं है? क्या वह यहां की मिट्टी में पला बढ़ा नही है? उसके माँ-बाप, दादा-दादी और बाकी अज्दाद इसी मिट्टी में दफन नहीं है? क्या मुस्लिम होने के चलते उसे अपनी देश की टीम पर खुशी मनाने का भी अधिकार नहीं है? क्या बस इसीलिए उसे पाकिस्तान का समर्थक मान लिया जाएगा कि वह मुस्लिम है? भले ही पाकिस्तान मुस्लिम देश हो, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि हम उसका समर्थन करेंगे? अपने विरोधी देश की टीम का समर्थन करेंगे? नहीं। हम उसका बिल्कुल भी समर्थन नहीं करेंगे। किसी भी कीमत पर नहीं। हम सच्चे हिंदुस्तानी है जो अपने देश को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते है। और वह यह बात अपने बॉस को भी समझाकर रहेगा। 

वह छुट्टी होने से पहले एक बार फिर बॉस के केबिन में गया। वह बैठे हुए चाय पी रहे थे। अब्दुल को अपने सामने खड़ा देख उन्होंने कोई स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी नहीं की। चुपचाप अपनी चाय पीते रहे। अब्दुल ने कहा- “सर, मुझे पाकिस्तान के हारने पर बिल्कुल भी खुशी नहीं हुई है। बल्कि मैं खुश हूँ, खुश क्या? बहुत खुश हूँ कि हमारा देश, हमारा भारत देश सेमीफाइनल में दुश्मन देश की टीम से जीत गया। उस देश से जिसने हमेशा हमारा बुरा चाहा है”, यह कहते हुए खुशी और गर्व के भाव उसके चेहरे पर नमूदार हो रहे थे। लेकिन बॉस ने चाय खत्म करके उसकी तरफ़ ऐसे देखा जैसे कि उनके सामने खड़ा व्यक्ति झूठ बोल रहा हो और जबकि वह उसकी सच्चाई जानते हो। उसकी इन बातों को सुनकर वह हँस दिये। एक घृणित हँसी। जिससे नफरत और हिंसा की बू आ रही थी।

उन्होंने चाय के खाली कप को सामने मेज पर रखी प्याली में ठीक से रखा और अपना बैग उठाकर केबिन से निकल गए।

बॉस की इस तरह की हँसी और यूँ चुपचाप चले जाने से अब्दुल वहां मूर्तिवत-सा खड़ा रह गया। वह भी उनके पीछे-पीछे केबिन से निकल गया और अपने घर चला गया। घर जाकर वह फिर सोच-विचार में पड़ गया। उसने सोचा कि शायद वह अपनी बात को ठीक ढंग से नहीं कह पाया है। उसे अपनी बात और अच्छी तरह से कहनी चाहिए थी। महज मुस्लिम हो जाने से ही तो हम पाकिस्तानी नहीं हो सकते? उसने फैलसा किया वह कल फिर बॉस के केबिन में जाएंगा और उन्होंने ठीक से बताएंगा कि वह मुस्लमान है तो क्या हुआ? वह भी हर आम भारतीय की तरह एक सच्चा हिंदुस्तानी है। 

अगले दिन वह समय पर ऑफिस जा पहुँचा। पहुँचते ही वह अपनी कुर्सी के पास गया और उस पर जमकर बैठ गया। उसने सामने मेज पर रखी फाइलों का उलटा-पलटा और बॉस के आने की प्रतीक्षा करने लगा। बॉस बारह बजे के बाद आए। वह लंच के बाद दो बजे उनके केबिन अदब और तहज़ीब के साथ दाखिल हुआ। बॉस दाएं हाथ में पेन लिए फाइलों में नज़रे गड़ाए बैठे है। उन्होंने केबिन में जब जूतों की आवाज़ सुनी तो एक पल के नज़रे उठाकर देखा लेकिन जैसे उन्हें अपने सामने अब्दुल खड़ा दिखाई दिया तो उन्होंने फिर से अपनी नज़रे फाइल में खड़ा ली। अब्दुल ने अदब और तहज़ीब के साथ उनके सामने खड़े होकर फिर से कहा- “देखिए सर, आप मुझे गलत समझ रहे है। मैं पाकिस्तान के हारने पर बिल्कुल भी दुख नहीं हूँ। बल्कि मुझे खुशी है भारत की जीत पर किसी भी आम हिंदुस्तानी की तरह।“ 

इस बार बॉस ने उसकी बात को बिल्कुल ही अनसुना कर दिया। उन्होंने एक बार भी उसकी तरफ देखा नहीं। बस चुपचाप फाइल में लगे रहे। उन्होंने घंटी बजाई। चपरासी को बुलाया। उसे वह फाइल देते हुए, दूसरे फाइले लाने के लिए कहा। अपनी इस उपेक्षा पर अब्दुल को दुख भी हुआ लेकिन उसे लगा शायद वह गलत वक्त पर आ गया है। बॉस जब इतने व्यस्त है तो उसे आना नहीं चाहिए। लेकिन वह इस बात से बहुत परेशान था कि वह एक मुसलमान होने के चलते उसे पाकिस्तान का समर्थक समझ रहे है। 

उसके मन पर उदासी और निराशा के बादल छा गए। फिर उसका काम में बिल्कुल भी दिल नहीं लगा। शाम को ऐसे ही हताशा, निराशा और परेशानी के आलम में घर पहुँचा। घर पहुँचकर उसने किसी से कुछ नहीं कहा। बस चुपचाप सोफा पर बैठा रहा। उसकी बीवी ने चाय को पूछा। उसने मना कर दिया। फिर उसने खाने के लिए पूछा, तो उसे भी मना कर दिया। इस पर उसे कुछ शंका हुई। वह रसोई निकली और उसके पास जाकर बैठ गई। उसने उसे इस तरह परेशान बैठा देखकर पूछा- “क्या बात? आप बहुत परेशान लग रहे है। सब ठीक तो है ना?“ 

“नहीं कुछ भी ठीक नहीं है”, और यह कहकर उसने मामला अपनी बीवी को बता दिया। सुनकर उसकी बीवी ने तैश में आ गई और उसने कहा- “ये भी भला कोई बात हुई। अगर हम मुस्लिम है तो क्या हमे अपने वतन से मौहब्बत नहीं है? क्या हमें उससे प्यार नहीं है? क्या बस मुस्लिम होने के कारण हम देशभक्त नहीं हो सकते? तुम्हें अपने बॉस को फिर से समझाना चाहिए। उन्हे बताना चाहिए कि भले ही हम मुस्लिम हो लेकिन बाकी सब की तरह हम भी अपने वतन को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते है। और हाँ, इस बार तुम उनसे ऑफिस में कुछ मत कहना। हो सकता है वह इस तरह बातों को ऑफिस में करना पसंद न करें। तुम्हें इस बार उनके घर जाना चाहिए। और उन्हें तसल्ली से अपनी बात समझानी चाहिए। ताकि वह आइंदा फिर किसी से ऐसी बातें न कह सके।“

अब्दुल को अपनी बीवी की बात जच गई। उसने सोचा कि ऑफिस के माहौल में ऐसे बात नहीं करना ठीक नहीं है। शायद इसीलिए बॉस ने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया। इस बार वह उनके घर जाएगा। इसके लिए अपनी या उनकी छुट्टी लेने की भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी, क्योंकि दो दिन बाद इतवार है।

इतवार के दिन वह अच्छे से नहाया-धोया। बेहतर टाई-सूट पहना। बालों का संवारा। पॉलिश किए हुए जूते पहने। इत्र झिड़का। कोट के बाए तरफ अपने दिल के ठीक ऊपर एक छोटा-सा तिरंगे का बिल्ला लगाया। और दस बजते ही वह अपने बॉस के घर पहुँच गया।

बॉस बाहर लॉन में बैठे हुए गर्म चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वह कुछ देर पहले ही सोकर उठे है। उन्होंने सफेद-कुर्ता पायजामा पहना हुआ था। जिसके ऊपर शॉल लपेट रखी थी। पैरों में बाटा की चप्पले और बाल बिखरे हुए थे। अब्दुल उनके सामने जा खड़ा हुआ। उनसे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा- “नमस्ते सर।“

बॉस अखबार निगाहे हटाकर सामने खड़े शख़्स पर डाली तो क्रोध से उनके चेहरे लाल हो उठा। आँखों में चिंगारियाँ फूटने लगी। पूरे शरीर में खून खौल उठा। उन्होंने अखबार रखा और एक झटके में खड़े होते हुए चिल्लाकर- “दफा हो जाओ सूअर के बच्चे। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की पाकिस्तानी जिहादी। तुम क्या समझते हो..., मैं तुम्हारी बातों में आ जाऊँगा। आतंकवादी कहीं के। निकल जाओ मुल्ले। अभी इसी वक्त निकल जाओं यहां से।“

यह कहते वक्त उनकी निगाह अब्दुल के सीने पर लगे तिरंगे के बिल्ले पर गई। जो धूप की रोशनी पड़ने से चमक रहा था। उन्होंने एक ही झटके में उस बिल्ले को नोंच लिया और ज़मीन पर फेंक दिया। उसे अपने पैरों से कुचलते हुए उन्होंने एक बार फिर चीखते हुए कहा- निकल मुल्ले। पाकिस्तानी कहीं के। मेरे घर से निकल जा। 

अपनी उम्मीदों के विपरीत बॉस का इतना नफरत भरा व्यवहार देखकर अब्दुला किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया। इस अचानक और अप्रत्याशित हमले से अब्दुल को लगा जैसे किसी ने उसके सीने में खंज़र घोप दिया हो। उसकी साँसे रुकने लगी। उसके कदम जैसे जम गए थे। वह चाहकर भी उन्हें उठा नहीं पा रहा था। उसने अपनी सारी बची-खुची ताकत को समेटा और डगमगाते कदमों से घर की ओर चल दिया। वह किसी गंभीर रूप से घायल सैनिक की तरह जिसे उसकी की ही रैंज के अफसर ने अपनी बंदूक की गोली से लहूलुहान कर दिया हो घर पहुँचा और बैड पर गिर पड़ा। इसके बाद वह कई दिनों तक बीमार रहा और फिर मर गया। 


तारीख: 09.06.2017                                    शहादत









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