रेस्टोरेंट और ब्रह्मांड का रसोइया


 

उसने रेस्टोरेंट खोला, एक सपना साकार किया,
मेन्यू सजाया, हर डिश का दाम तय किया।
ग्राहक आएँगे, खाएँगे, बिल चुकाएँगे,
उसका बैंक बैलेंस बढ़ेगा, यही उसका गणित था।

पर हर टेबल, एक अलग दुनिया थी,
हर कुर्सी पर, एक अलग कहानी लिखी जा रही थी।
उसने मसाले डाले थे स्वाद के लिए,
पर यहाँ, ज़िंदगी अपने मसाले खुद मिला रही थी।

पहली मोहब्बत का ज़ायका, मीठा, तीखा, अनजाना,
दोस्ती की गर्माहट, जैसे तंदूर से निकली रोटी।
ऑफिस की गपशप, चटपटी, मसालेदार,
टूटे रिश्तों का दर्द, कसैला, आँखों में पानी लाने वाला।

एक टेबल पर, अरेंज मैरिज का मेन्यू खुला था,
दो परिवार, दो संस्कृतियाँ, एक नई रेसिपी बनाने की कोशिश में।
एक कोने में, अकेलेपन का सूप, ठंडा, फीका,
एक किताब खुली थी, पन्ने पलट रहे थे, पर मन कहीं और था।

और मैं, एक कोने में, अपनी कविता लिख रहा था,
इन सब स्वादों को, शब्दों में पिरोने की कोशिश में।
ये रेस्टोरेंट, एक प्रयोगशाला बन गया था,
जहाँ इंसानियत, अपने हर रूप में, परोसी जा रही थी।

मालिक, बस शेफ था,
उसने खाना बनाया, परोसा,
पर खाने वालों ने,
उसमें अपनी भावनाएँ मिला दीं,

अपनी यादें, अपने सपने, अपने डर।

शायद, ऊपर वाला भी,
एक ऐसा ही शेफ है।

उसने दुनिया बनाई, ग्रह सजाए,
जीवन के बीज बो दिए,
और फिर... पीछे हट गया।

उसने नियम बनाए, गुरुत्वाकर्षण, समय,
पर हमने, उन नियमों में,
अपनी कहानियाँ रच दीं।

हमने प्यार किया, नफ़रत की,
युद्ध लड़े, शांति स्थापित की,
हमने कला बनाई, विज्ञान खोजा,
हमने ख़ुदा बनाए, और ख़ुदा को नकारा।

क्या वो देखता है, हमें?
क्या वो सुनता है, हमारी प्रार्थनाएँ?
क्या उसे फर्क पड़ता है,
हमारे सुख-दुख से?
या वो बस,
एक रसोइया है,
जिसने खाना बना दिया,
और अब,
परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा है?

शायद, ये रेस्टोरेंट,
और ये ब्रह्मांड,
दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
एक रचना,
जो अपने रचयिता से,
बहुत आगे निकल गई है।
एक ऐसा खेल,
जिसके नियम तो तय हैं,
पर जिसका नतीजा,
किसी को नहीं पता।

और हम,
बस वो जायके हैं,
जो इस खेल को,
रोचक बनाते हैं,
कड़वे, मीठे, खट्टे, तीखे...
एक अनंत स्वाद,
जो कभी खत्म नहीं होता...
शायद उद्देश्य बस इतना है
कि चखते रहो,
महसूस करते रहो...
चाहे रसोइया देखे,
या ना देखे।
शायद रसोइया भी चख रहा हो,
हमारे माध्यम से।


तारीख: 11.08.2025                                    मुसाफ़िर




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