यार पापा

 

सभी को नमस्कार! आधुनिक हिन्दी में युवा पीढ़ी के जीवन और भावनाओं को पकड़ने वाले लेखक दिव्य प्रकाश दुबे की कृतियाँ पढ़ना एक अलग ही अनुभव है। यार पापा उनका नया उपन्यास है, जिसे पढ़ते हुए मुझे लगा कि यह सिर्फ एक पिता बेटी की कहानी नहीं, बल्कि हमारे समाज में विश्वास, असफलता और पुनरुत्थान की गाथा है।

 

कथा का सार


यह कहानी है मनोज साल्वे की, जो एक सफल वकील हैं। उनकी सफलता का ऐसा जलवा है कि वह देश के सबसे प्रभावशाली लोगों में गिने जाते हैं, बड़े बड़े अभिनेता, राजनेता और उद्योगपति उनके क्लाइंट हैं। लेकिन एक दिन खुलासा होता है कि उनकी कानून की डिग्री फर्जी है। मनोज का तिलिस्म टूट जाता है; उनकी बेटी साशा उन्हें झूठा और धोखेबाज़ मानती है। वही व्यक्ति जो अदालत में किसी भी मुकदमे को जीत सकता था, अब अपनी ही बेटी का भरोसा खो चुका है।


कहानी आगे बढ़ती है जब मनोज अपनी गलती स्वीकारते हैं और निर्णय करते हैं कि वे दोबारा लॉ स्कूल में जाएँगे और असली डिग्री हासिल करेंगे। यह यात्रा केवल औपचारिक शिक्षा की नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण और आत्मसुधार की है। वह अपने परिवार और समाज की नज़रों में फिर से सम्मान पाने की कोशिश करते हैं।

 

विषय और उपविषय


1.  पिता बेटी का संबंध: उपन्यास का दिल इस टूटे रिश्ते को पुन: जोड़ने में है।
2.  दूसरा मौका: मनोज की नई शुरुआत यह दर्शाती है कि जीवन में देर से ही सही, सुधार संभव है।
3.  मैत्री और परिवार: गजेंद्र, मीता, प्रिया, बाबा, अनुशा जैसे पात्र मनोज की यात्रा में मार्गदर्शक और सहारा बनते हैं।
4.  नयी वाली हिन्दी: लेखक ने बोलचाल की भाषा में अंग्रेज़ी शब्दों को मिश्रित कर ‘नयी वाली हिन्दी’ की ताजगी दी है।
5.  न्याय और नीति: फर्जी डिग्री, कर चोरी, राजनीतिक साज़िश जैसे मुद्दों से न्याय और नैतिकता का प्रश्न उठता है।

 

दिलचस्प पहलू


•  उपन्यास की शुरुआत प्रसिद्ध ग़ज़ल ‘वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर, चंद घड़ियाँ यहीं हैं जो आज़ाद हैं’ से होती है; यह पंक्ति कहानी के उतार चढ़ाव का संकेत देती है।
•  दुबे ने समकालीन युवा भाषा को अपनाया है; हिंदी और अंग्रेज़ी शब्दों का संयोजन पाठकों को परिचित अनुभव देता है।
•  कथा में कानूनी मुद्दे, मीडिया की भूमिका और समाज की निगाहें – ये सब सामंजस्य के साथ बुने गए हैं।

 

समीक्षा


यार पापा  पढ़ते हुए मैंने पाया कि मनोज साल्वे का चरित्र बेहद वास्तविक है। वह घमंडी नहीं, बल्कि अपनी सफलता का गुलाम है। जब सच सामने आता है, तो वह टूटता है पर बिखरता नहीं। उसकी बेटी साशा का गुस्सा भी जायज़ है; पिता की छवि उसकी दुनिया होती है और उसका टूटना उसके बचपन को हिला देता है। दोनों की यात्रा धीरे धीरे पुनर्मिलन की ओर बढ़ती है।


गजेंद्र और मीता जैसे मित्र मनोज के जीवन में गहराई लाते हैं। मीता के प्रिंसिपल बनने का प्रसंग और बाबा के जीवन-दर्शन के प्रसंग सकारात्मक ऊर्जा देते हैं। अनुशा और मुस्कुराते अंकल जैसे पात्र दर्शाते हैं कि जीवन में अजनबी भी हमारी राह बदल सकते हैं।


भाषा और शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास सरल है; दुबे लंबी व्याख्याओं में नहीं जाते बल्कि संवादों से कथानक आगे बढ़ाते हैं। कानून के प्रावधान, टैक्स के झमेले और मीडिया ट्रायल जैसे विषय उपन्यास में समरस हैं, जिससे कहानी आज के भारतीय समाज का दर्पण लगती है।

 

इसे क्यों पढ़ें?


•  यह पुस्तक बताती है कि गलती हो जाए तो भी अपने प्रियजनों का विश्वास वापस पाया जा सकता है।
•  कहानी आधुनिक शहरी जीवन, करियर, परिवार और मीडिया के दबावों को उजागर करती है।
•  ‘नयी वाली हिन्दी’ का स्वाद लेने के लिए; लेखक की भाषा युवाओं की बातचीत की तरह है।

 

मेरी राय


मुझे यार पापा ने यह सिखाया कि हर इंसान को दूसरा मौका मिलता है, बशर्ते वह उसकी कद्र करे। मनोज का दृढ़ संकल्प, साशा का धीरे धीरे पिघलता दिल और दोस्तों का बिना शर्त साथ—ये सभी चीज़ें आपको सोचने पर मजबूर करती हैं कि असफलता से ज्यादा ज़रूरी है उससे उबरना। किताब पढ़कर आप अपने परिवार, रिश्तों और सफलताओं की ओर नए दृष्टिकोण से देखने लगेंगे।
 


तारीख: 15.08.2025                                    लिपिका




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