नमस्ते, मैं लिपिका!
किताबों की दुनिया में कुछ सफ़र ऐसे होते हैं, जिनसे गुज़रने के बाद आप पहले जैसे नहीं रह जाते। वो आपके भीतर कुछ तोड़ जाते हैं, कुछ जोड़ जाते हैं, और आपको हमेशा के लिए बदल देते हैं। मन्नू भंडारी जी की 'आपका बंटी' मेरे लिए एक ऐसा ही सफ़र था। एक ऐसा सफ़र, जिसे पूरा करने के बाद मैं कई रातों तक सो नहीं पाई। मेरे अंदर एक बच्चे की सिसकियाँ गूँजती रहीं, एक ऐसा बच्चा जिसे हर कोई 'अपना' कह रहा था, पर जिसे किसी ने अपनाया नहीं।
यह उपन्यास नहीं, एक बच्चे के टूटते हुए दिल का नज़दीकी, लाइव कवरेज है। यह एक चिट्ठी है, जो बंटी ने कभी नहीं लिखी, लेकिन मन्नू भंडारी ने उसके हर आँसू, हर चुप्पी और हर अधूरी बात से हमारे लिए तैयार कर दी है।
लेखिका की सबसे बड़ी जीत यह है कि वह आपको एक दर्शक नहीं रहने देतीं। वह आपकी उँगली पकड़कर आपको सीधे बंटी की चेतना में उतार देती हैं। आप बंटी की आँखों से देखने लगते हैं, उसके कानों से सुनने लगते हैं। आप महसूस करते हैं घर में पसरा वो अजीब सा सन्नाटा, जब मम्मी (शकुन) और पापा (अजय) एक ही छत के नीचे अजनबी थे। आप महसूस करते हैं पापा के जाने के बाद मम्मी की साड़ी में मुँह छिपाकर रोने की घुटन।
फिर बंटी की छोटी सी दुनिया में नए किरदारों का आगमन होता है - एक 'डॉक्टर अंकल' (जो मम्मी के दोस्त हैं) और एक 'नई मम्मी' (पापा की नई पत्नी)। बंटी की नज़र से देखिए, ये लोग विलेन नहीं हैं, ये बस 'नए' हैं। और इस नएपन में बंटी के लिए कोई जगह नहीं है। वह एक पुराने फ़र्नीचर की तरह है, जिसे नए घर में कहाँ रखें, यह किसी को समझ नहीं आता।
ताले वाली अलमारी: यादों का क़िला और क़ब्रगाह
उपन्यास में एक प्रतीक मुझे अंदर तक हिला गया - ताले वाली अलमारी। बंटी अपने पापा से जुड़ी चीज़ों, उनकी चिट्ठियों और अपनी यादों को एक अलमारी में बंद करके ताला लगा देता है। यह एक बच्चे की अपने बिखरते हुए संसार को नियंत्रित करने की एक मार्मिक कोशिश है। वह ताला सिर्फ़ अलमारी पर नहीं, अपने दिल पर लगाता है। वह सोचता है कि अगर वह यादों को क़ैद कर लेगा, तो शायद दर्द भी क़ैद हो जाएगा। लेकिन अंत में, वही अलमारी उसके लिए एक क़ब्रगाह बन जाती है, जहाँ उसने अपने अतीत को ज़िंदा दफ़न कर दिया है। यह प्रतीक बंटी की पूरी मनोवैज्ञानिक यात्रा का सार है।
किरदार, जो हमारे ही समाज के आईने हैं
बंटी: वह इस कहानी का दिल है, एक ऐसा दिल जिसे बड़ों के अहंकार ने तोड़ दिया। वह सिर्फ़ एक बच्चा नहीं, वह दो लोगों के बीच हुए एक भावनात्मक 'बँटवारे' का जीता-जागता सबूत है। उसका गुस्सा, उसकी ज़िद, उसका धीरे-धीरे सब कुछ से मुँह मोड़ लेना, और अंत में उसका अजनबीपन (Alienation) में खो जाना... यह किसी भी संवेदनशील इंसान को हिलाकर रख देगा।
शकुन (माँ): वह एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर स्त्री है जो एक नाकाम रिश्ते से निकलकर अपनी ख़ुशी और अपना अस्तित्व तलाश रही है। उसकी लड़ाई जायज़ है। लेकिन इस लड़ाई में वह यह भूल जाती है कि उसके फ़ैसलों की सबसे भारी क़ीमत उसका बेटा चुका रहा है। वह बंटी से प्यार करती है, पर उसे समझ नहीं पाती।
अजय (पिता): वह एक ऐसे किनारे की तरह है, जो दूर से सुंदर तो दिखता है, पर जिस तक पहुँचना नामुमकिन है। वह ख़त लिखता है, तोहफ़े भेजता है, पर बंटी की ज़िंदगी में एक पिता की जो ख़ाली जगह है, उसे भर नहीं पाता।
समय का आईना: तब और आज
जब यह उपन्यास 1971 में लिखा गया था, तब तलाक़ समाज में एक बहुत बड़ा कलंक माना जाता था। उस दौर में एक बच्चे के नज़रिए से इस विषय पर लिखना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था। मन्नू जी ने समाज को उस बच्चे का दर्द दिखाया जिसे सब अनदेखा कर रहे थे।
आज दशकों बाद, जब तलाक़ और नए रिश्ते आम हो चुके हैं, 'आपका बंटी' और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो गया है। यह हमें याद दिलाता है कि भले ही समाज बदल गया हो, लेकिन बच्चे का मन आज भी उतना ही नाज़ुक है। आज भी, बड़ों की अपनी पहचान और ख़ुशी की तलाश में, कई 'बंटी' अपने बचपन और अपनी पहचान को खो रहे हैं।
यह किताब बार-बार अपने शीर्षक के सच से आपको टकराती है। बंटी 'मम्मी का बंटी' है, 'पापा का बंटी' है, पर जब मम्मी 'डॉक्टर अंकल' की हो जाती है और पापा 'नई मम्मी' के, तो बंटी किसका रह जाता है? वह एक सर्वनाम बन जाता है, जिसे हर कोई दूसरे की तरफ़ धकेल देता है। यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी त्रासदी है।
निष्कर्ष: एक किताब जो आपको बदल देगी
मन्नू भंडारी की भाषा किसी तेज़ धार वाले चाक़ू की तरह है, जो सीधी दिल में उतरती है। यह उपन्यास किसी फ़िल्म की तरह दृश्यों में नहीं, बल्कि अहसासों के लंबे 'टेक्स' (takes) में आगे बढ़ता है। इसमें संवादों से ज़्यादा ताक़त बंटी की चुप्पी में है, जो एक कुशल नाटक की तरह अनकहे को भी कह जाती है।
'आपका बंटी' मनोरंजन के लिए नहीं है। यह एक ज़िम्मेदारी है। यह एक अनुभव है जो आपको आईना दिखाता है। यह आपसे सवाल करती है कि जब हम अपनी ज़िंदगी के बड़े-बड़े फ़ैसले लेते हैं, तो क्या हम एक पल के लिए भी उन मासूम आँखों के बारे में सोचते हैं जो हमें देख रही होती हैं?
यह किताब पढ़ने के बाद आप हर तलाक़शुदा जोड़े और उनके बच्चे को एक अलग नज़र से देखने पर मजबूर हो जाएँगे। आप ख़ुद से पूछेंगे - जब दो लोगों की राहें अलग होती हैं, तो क्या उनका 'बंटी' सच में किसी का रह जाता है? या वह सिर्फ़ एक नाम बन जाता है, जिसे हर कोई अपना कहता है, पर कोई अपनाता नहीं।