सपना


“तराना मैडम...आप यहाँ बैठी हैं?...मैं आपको कहाँ-कहाँ ढूँढ़ रहा था?”


“ओह...कोई खास काम?” उसने अपनी कुर्सी से उठते हुए कहा।


“अरे-अरे...बैठी रहिए...आप तो बेवजह तकल्लुफ़ करती हैं...बैठिए...प्लीज़” और अमर भी उसके पास वाली कुर्सी पर बैठते हुए बोला, “क्या बात है...आजकल बहुत खोई-खोई सी रहती हो?”


“नहीं तो...क्यों क्या हुआ?” तराना ने किताब बन्द करते हुए कहा। 


“तुम्हें तो कोई होश ही नहीं है...पता है हमारी दोस्ती पर अँगुलियाँ उठने लगी हैं। लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे हैं।”


“तो आपको लोगों से डर लगता है क्या...कहने दीजिए...हम दोनों तो अपनी जगह ठीक हैं न।”


“सच तरु, मुझे तुम्हारी यह आदत बहुत अच्छी लगती है...मे आय काल यू तरु?” अमर ने कुछ हिचकते हुए पूछा।


वह खिलखिलाकर हँस पड़ी, “हाँ...हाँ...क्यों नहीं? इनफैक्ट आई लाइक दिस नेम एंड योर काम्प्लीमेंट्स ऑलसो...और क्या-क्या अच्छा लगता है आपको मुझमें?”


“सच...तुम्हारा ऐसे हँसना, तुम्हारा ड्रेसिंग सेन्स, तुम्हारी आँखों का काजल, तुम्हारे पर्फ्यूम की खुश्बू और सबकुछ...तुम्हारी हर अदा मुझे अच्छी लगती है। सच तो यह है कि मुझे जो अच्छा लगता है वह सब तुममें है।”


“तभी तो वी आर फ्रेण्ड्स...गुड फ्रेण्ड्स...है न?” उसने अमर की तरफ देखकर कहा।


“तुम हर बार मुझे यह अहसास क्यों करवाती हो कि हम दोस्त हैं...क्या हम केवल दोस्त हैं?” अमर ने उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहा।


“हाँ” कहते हुए उसने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और प्लीज़ लीव मी कहकर वहाँ से उठ गयी। अपना पर्स उठाया और स्टाफ रूम से तेज़ी से निकलकर कॉलेज के गेट के बाहर निकल आई।


“अरे मैडम! सुनिए तो...” अमर ने कहना चाहा मगर वह कुछ नहीं बोला।


कालेज से निकलकर बिना रिक्शा किये वह बस स्टैण्ड तक पैदल ही चली आई और बस का इन्तज़ार करने लगी। उसे अमर की इस हरकत पर आश्चर्य हो रहा था। उसका मन बहुत उदास हो उठा। वह रोना चाह रही थी। वह सोचने लगी कि ‘वह किसी से साफ-साफ क्यों नहीं बोल पाती, क्यों नहीं किसी को रोक पाती? वह चाहती तो उसी समय अमर की गलतफहमी दूर कर सकती थी, पर नहीं कह पाई...कुछ भी नहीं कह पाई।‘ उसके मन में ढ़ेर सारे प्रश्न उमड़ने लगे, ‘क्यों लोग उसकी भावनाओं को समझ नहीं पाते? वह तो सबसे दोस्ती करती है और लोग उसकी दोस्ती को क्या समझ बैठते हैं? बार-बार उसे यही लगता है कि क्या उसका लड़की होना गलत है? क्या लड़की किसी से दोस्ती का रिश्ता नहीं बना सकती? क्या स्त्री-पुरुष में एक ही सम्बन्ध हो सकता है?’ वह सोचने लगी, ‘मैं तो अमर को एक अच्छा दोस्त मानती हूँ। मेरे हल्के-फुल्के मज़ाक और बातों का उसने क्या अर्थ निकाला? उफ ये पुरुष भी...’ यह सब उसके दिमाग में चल ही रहा था कि बस आ गयी। वह बस में चढ़ी और अपनी सीट पर बैठते-बैठते उसे पाँच साल पहले बीती घटनाएँ रह-रहकर याद आने लगीं...

 

    तराना उस समय बी. ए. फाइनल कर रही थी। उसका प्रमुख विषय ड्राइंग पेंटिंग था। बी. ए. के साथ-साथ वह पेंटिंग के कई अन्य कोर्सेज भी कर रही थी। विषय की जटिलता के कारण घर के ही पास उसने एक पेंटिंग सिखाने वाले सर के यहाँ कोचिंग लेना शुरू कर दिया था। सर सचमुच बहुत अच्छे कलाकार थे। पहले ही दिन से तराना ने उन्हें अपना गुरू मान लिया और विधिवत् सीखना भी शुरू कर दिया। सर की बातें और आदत उसे बहुत पसन्द आती थीं। सर के परिवार में सभी लोगों की आदत बहुत अच्छी थी। आंटी तो उसे अपनी बेटी ही मानती थीं। वह भी उनके परिवार में इतनी घुलमिल गयी कि धीरे-धीरे बिल्कुल घर जैसे सम्बन्ध हो गये थे। दोनों परिवारों का एक दूसरे के यहाँ विभिन्न अवसरों पर आना जाना साधारण बात हो गयी थी। 


    यूँ तो सर के परिवार के सभी लोग उसके घर आते थे, लेकिन सर के बेटा सिद्धार्थ जब आता तो जैसे रौनक आ जाती। उसकी बातें, उसकी कविताएँ, किस्से-कहानियाँ और न जाने क्या-क्या? उसकी बहुमुखी प्रतिभा उसके आकर्षक व्यक्तित्व को निखार देती थी। उसके व्यक्तित्व और बातों में ऐसा सम्मोहन था कि दृष्टि उसके चेहरे से और कान उसकी बातों से हटाए नहीं हटते थे। जब भी वह आता तो वह सारे काम छोड़कर उसकी बातों में रम जाती थी। उसकी बातें भी तो निराली होती थीं, कभी अपनी मोटरसाइकिल की यात्राओं के बारे में, कभी अध्यात्म के बारे में तो कभी मस्ती भरी बातें सुनकर उसका मन प्रसन्न हो जाता था। उसकी बातों से ही लगता था कि वह कितना अनुभवी है! कितनी बातों का ज्ञान है उसे। वह सबकुछ चुपचाप सुनती रहती और मुस्कुराती रहती लेकिन न जाने क्यों उससे बातें करने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। एक संकोच सा मन में रहता था। फिर जब-जब वह घर आता तो घर का वातावरण प्रफुल्लित हो जाता था। वह उसके आने की प्रतीक्षा करती। कभी-कभी ‘गुडमार्निंग’, ‘गुड नाइट’ या किसी पर्व विशेष पर उन्हें शुभकामना भरे संदेश भी भेजा करती और उसके उत्तर की प्रतीक्षा करती। कभी तो उत्तर शीघ्र ही आ जाता लेकिन कभी कभी देर तक कोई उत्तर नहीं आता। जब व्यग्रता बढ़ जाती तो वह स्वयं को समझाती कि ‘उनके पास इतना समय ही कहाँ होगा मुझ जैसी बिल्कुल साधारण लड़की के लिए‘ और अपने काम में लग जाती। 


    धीरे-धीरे वह सिद्धार्थ से बातें करने लगी जिससे उसकी झिझक  खुल गयी और वह उसके साथ सहज हो गई। अक्सर उसके साथ बाजार, मंदिर, मॉल और कभी-कभी फिल्म देखने भी चली जाती। उसने महसूस किया कि उसे सिद्धार्थ का और सिद्धार्थ को उसका साथ अच्छा लगता है। दोनों के बीच एक आकर्षण पैदा होने लगा था। 


    एक दिन जब सिद्धार्थ उसके घर आया तो तराना ने देखा उसकी आँखों में एक कशिश थी, जैसे उसकी आँखें कुछ कहना चाह रही थीं। तराना को उसकी आँखों की कशिश बहुत अच्छी लगी। पहली बार उसे सिद्धार्थ की आँखों में अपने लिए कुछ दिख रहा था और पहली बार ही ऐसा हुआ कि सिद्धार्थ बातें करने में असहज हो रहा था। न जाने क्यों वह आज खुद को विशिष्ट लग रही थी। बहुत कोशिश करने पर भी जब उसकी कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई तो उसने सिद्धार्थ के फोन पर एक संदेश भेजा, ‘आज आप बहुत अच्छे लग रहे हैं।‘ ‘थैंक्स...तुम भी’ सिद्धार्थ के संदेश ने उसे रोमांचित कर दिया। वह मुस्कुरा उठी। उसने देखा कि सिद्धार्थ भी मुस्कुराते हुए उसे कनखियों से देख रहा था। उस दिन सिद्धार्थ ने ज्यादा बात नहीं की, बस इतना बताया कि अगले दिन वह इलाहाबाद जा रहा है। सिद्धार्थ ने चाय पी और चला गया। 


    अगले दिन शाम को तराना के मोबाइल पर सिद्धार्थ का संदेश आया, ‘क्या कर रही हो? आई एम इन द ट्रेन।’


    ‘कुछ नहीं...हैप्पी जरनी...और बताइए’ तराना ने उत्तर दिया।


    फिर बहुत देर तक संदेशों का सिलसिला चलता रहा कि सिद्धार्थ के एक संदेश ने तराना के होश उड़ा दिये, ‘आई लव यू तराना।’


    तराना की समझ में नहीं आया कि वह क्या उत्तर दे। ‘अच्छा जी...’ उसने बस इतना ही लिखा, और सिद्धार्थ ने कहना शुरू कर दिया, ‘सच में, तराना, तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। मैं कई दिनों से तुमसे कहना चाह रहा था लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। लेकिन आज बहुत हिम्मत करके मैंने तुम्हें अपने दिल की बात इस मैसेज के जरिए बताई। तुम्हें बुरा तो नहीं लगा?’


    ‘नहीं तो...बुरा क्यों लगेगा...मैं हूँ ही इतनी प्यारी कि सब मुझे प्यार करने लगते हैं...हा हा हा...’ तराना ने सिद्धार्थ के संदेश का उत्तर दिया। तराना के इस उत्तर को देखकर सिद्धार्थ को लगा कि तराना ने उसकी बातों का बुरा नहीं माना, लेकिन यह बात अभी भी स्पष्ट नहीं की कि उसे सिद्धार्थ का प्रेम प्रस्ताव स्वीकार था या नहीं। सिद्धार्थ ने उससे बहुत देर तक बात की और अपने दिल की सारी बातें संदेशों के माध्यम से उसे बताईं।
    
“उतरिए मैडम...बस पहुँच गयी” कंडक्टर की आवाज़ ने अपने ख्यालों में खोई तराना को एकदम चौंका दिया। वह बस से उतरकर ऑटो में बैठ गयी। मन बहुत भारी हो रहा था। अमर का इस तरह उसका हाथ पकड़ना उसके दिल में बार-बार चुभ रहा था। वह अपना हाथ मलने लगी जैसे अमर की अँगुलियों के निशान अपने हाथ पर से मिटा देना चाहती हो। इसी बीच उसे नौकरी छोड़ने का ख्याल आया लेकिन यह इतना आसान नहीं था। उस पर पूरे परिवार का दायित्व था। इन बातों के साथ-साथ पिछली बातों के मेघ उसके मानस पटल पर पूरी तरह छा चुके थे। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। ऑटो से उतरकर वह कब घर आ गयी उसे पता ही नहीं चला। 


कमरे में बिछे पलंग पर अपना पर्स फेंका और वॉशरूम में चली गयी। बाहर आकर पलंग पर लेट गयी। अमर की बातें, उसका हाथ पकड़ना और नौकरी छोड़ने का विचार बार-बार उसके मन-मस्तिष्क में उथल-पुथल मचाने लगे। नौकरी छोड़ने के विचार से वह एकदम सिहर उठती थी। उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वह त्यागपत्र दे।


‘आखिर क्या कहकर वह नौकरी छोड़ेगी? माँ से, पापा से...कालेज के लोगों से...क्या कहेगी कि क्यों जॉब छोड़ रही है? नहीं...नहीं...यह ठीक नहीं रहेगा। उसके न जाने कितने सपने इस नौकरी से जुड़े हैं? क्या सब चूर-चूर हो जाएँगे लेकिन अगर फिर अमर ने कुछ...उफ मैं क्या करूँ?’ उसके मन में ये बातें रह-रहकर आ रही थीं कि तभी माँ चाय बनाकर ले आयी।


माँ ने चाय पास ही पड़ी मेज पर रखी और उससे पूछा, “क्या बात है तरु...क्या हुआ...तबियत ठीक नहीं क्या?”


“नहीं...कुछ नहीं...बस थोड़ा सिर दर्द है...पापा कहा हैं?” उसने कहा।


माँ ने बिस्तर पर पड़े कपड़े संभालते हुए जवाब दिया, “गए होंगे कहीं...बताकर जाते हैं क्या? सुबह सेस घर में ही पड़े थे...हर समय का बोलना और परेशान करना...मेरे तो सिर में दर्द होने लगत है।” माँ खीझ उठी।


“तुम उनसे ज्यादा मत बोला करो...काम में लगी रहा को...शिवू नहीं आया ट्यूशन से?” चाय की चुस्की लेते हुए उसने कहा।


“आता ही होगा...बेटा तेरी तनख्वाह कब तक मिलेगी?...आज गुप्ता जी मकान के किराए के लिए पूछ रहे थे”, माँ ने हिचकते हुए कहा। 


शायद कल मिल जाएगी...दे देना किराया...शिवू की फीस भी तो देनी है, उसने कहा ही था कि तब तक उसके ट्यूशन वाले बच्चे आ गए। चाय खत्म करके वह बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त हो गयी।


रात में खाना ढंग से नहीं खाया। वह कुछ देर अकेला रहना चाहती थी इसलिए छत पर टहलने लगी। उसके मन में अभी तक पिछली बातें चल रही थीं...

सिद्धार्थ तराना के घर पहले की तरह आता जाता रहा और उसके लिए कभी चाकलेट तो कभी कुछ लेकर आता था। तराना हँसकर उसे स्वीकार करती सिद्धार्थ अक्सर उसे ‘आई लव यू बोलता’, तो तराना ‘पता है’ या ‘आई नो’ कहकर उत्तर देती। अवसर पाकर सिद्धार्थ कभी रसोई, कभी छत, तो कभी गैलरी में तराना का हाथ माथा और गाल चूम लेता था। इस पर तराना हँसती और कोई देख ले तो कहकर उसके चुम्बन को सहज स्वीकार कर लेती थी। सिद्धार्थ को विश्वास हो चला था कि तराना भी उससे प्यार करने लगी है लेकिन तराना को इस बात का अहसास नहीं हुआ था कि सिद्धार्थ अपने प्यार को लेकर बहुत गंभीर होता जा रहा था।


एक दिन सिद्धार्थ ने तराना से पूछा, “मेरे साथ घूमने चलोगी?”


“हाँ क्यों नहीं...कहाँ चलना है? चलिए...पर पापा से पूछना पड़ेगा और यह काम आप ही करेंगे” तराना तुरन्त उसके साथ जाने को तैयार हो गयी।


सिद्धार्थ ने घूमने का दिन और समय निश्चित करके तराना के पापा से भी अनुमति ले ली। 


निश्चित दिन दोनों सुबह साढ़े चार बजे दिल्ली गये। रास्ते भर सिद्धार्थ ने तराना से बहुत सारी बातें कीं और साफ-साफ बताया कि वह उससे कितना प्यार करता है? उसके लिए वह कुछ भी कर सकता है। तराना ने उससे कहना चाहा कि ‘वह उसे केवल एक अच्छा दोस्त मानती है और उसके मन में प्यार जैसी फीलिंग सिद्धार्थ के लिए नहीं है क्योंकि वह किसी और को चाहती है’ लेकिन सिद्धार्थ की दीवानगी देखकर वह उससे कुछ नहीं कह पाई और चुपचाप सिद्धार्थ की बातें सुनती रही। उसके मुँह से बस यही निकला, “मैं सबको खुश देखना चाहती हूँ। मेरे जीवन का यही सपना है कि हर एक को खुशी दे पाऊँ, सबके चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेर पाऊँ। सबकी ज़िन्दगी में खुशियों का तराना भर दूँ।“


दोनों दिल्ली में घूमते रहे। सिद्धार्थ अक्सर तराना का हाथ पकड़ लेता और तराना मुस्कुरा देती। तराना के हाव-भाव से सिद्धार्थ को पूरा विश्वास हो गया कि ‘तराना भी उसे चाहती है, पर संकोचवश नहीं कह पा रही। आखिर लज्जा ही तो स्त्री का आभूषण है’, यह सोचते हुए सिद्धार्थ का मन प्रफुल्लित हो उठा। दिल्ली के एक पार्क में दोनों एक पेड़ के नीचे एकान्त में बैठ गए। बातों-बातों में सिद्धार्थ ने तराना को अपनी बाहों में भर लिया और आई लव यू तराना कहते हुए उसके माथे, गाल, होंठों को चूमने लगा। तराना ने सिद्धार्थ के पाश से खुद को छुड़ाने की चेष्टा नहीं की क्योंकि वह चाहती थी कि सिद्धार्थ खुश रहे। उसने बस इतना ही कहा, “रहने दीजिए न...कोई देख लेगा।” उसने खुद को सिद्धार्थ की बाहों में ढीला छोड़ दिया था। अगले ही पल सिद्धार्थ ने स्वयं को नियंत्रित किया और आई एम सॉरी कहकर उससे दूर हट गया। तराना ने उससे कुछ नहीं कहा और मंद-मंद मुस्कुराती रही। सिद्धार्थ को अपने किए पर ग्लानि हो रही थी। वह तराना से अलग जाकर चुपचाप बैठ गया। तराना उसकी मनः स्थिति को भाँपकर खुद ही उसके पास जाकर बोली, “खाना टेस्टी था न...?” सिद्धार्थ ने तराना के चेहरे की ओर देखा, उसका चेहरा बिल्कुल शान्त था, वही हल्की-सी परिचित मुस्कुराहट देखकर सिद्धार्थ के मन को शान्ति मिली, उसने एकदम से उत्तर दिया, “अ...हाँ...हाँ...अच्छा था...चलो ट्रेन के टाइम तक हम स्टेशन पहुँच जाएँगे।”


वापस लौटते समय अपराध बोध से ग्रसित सिद्धार्थ ने ज्यादा बात नहीं की। बस औपचारिक बातें और हँसी-मज़ाक ही करता रहा। तराना भी उसकी बातों पर हँसते-हँसते कभी सिद्धार्थ की बाँह पकड़ककर चिपक जाती तो कभी अपना सिर उसके कंधे पर झुका देती। तराना की भाव-भंगिमा से सिद्धार्थ को पूर्ण विश्वास हो गया था कि तराना उसे चाहने लगी है। 


इसके बाद से सिद्धार्थ अपने प्यार को लेकर कई तरह के सपने सजाने लगा। वह अक्सर तराना से अपने प्यार के बारे में बातें करता और तराना चुपचाप उसे सुनती। उसका मन होता कि वह कह दे, ‘बस बहुत हो चुका। मैं आपसे प्यार नहीं करती। मेरी ज़िन्दगी और मेरा प्यार किसी और के लिए है, आपके लिए नहीं। आपको केवल एक दोस्त ही मानती हूँ। आपकी सारी बातें इसलिए चुपचाप सुनती हूँ कि आपको खुश देखना चाहती हूँ।’ लेकिन तराना न तो कछ कह पाई और न ही सिद्धार्थ के प्यार को मना कर पायी। उसने सिद्धार्थ से कभी नहीं कहा कि वह उसे नहीं चाहती, बस उसके ‘आई लव यू’ का उत्तर ‘पता है’ कहकर देती रही और सिद्धार्थ उसे तराना का संकोच समझता रहा। 


सिद्धार्थ का जन्मदिन आने वाला था। एक दिन तराना ने उससे कहा, “मैं आपका जन्मदिन एक यादगार दिन बनाना चाहती हूँ...चलिए हम कहीं बाहर चलेंगे...।” यह सुनकर सिद्धार्थ खुशी से झूम उठा और उसने अपने जन्मदिन का कार्यक्रम बनाना शुरू कर दिया। वह बहुत खुश था। बार-बार उसके में मन में कुछ नया, कुछ अलग करने का विचार आता और बार-बार बदलता। कहाँ जाएँगे, कैसे जाएँगे आदि योजनाएँ उसके मन मस्तिष्क में उमड़ती रहीं।


जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले दोनों एक हिल स्टेशन पर गए। दोनों एक होटल में रुके। सिद्धार्थ ने तराना के लिए कुछ उपहार खरीदे थे, जो उसे भेंट किये। तराना ने पहले तो उन्हें लेने में संकोच किया फिर सिद्धार्थ की खुशी के लिए वे उपहार ले लिए। सिद्धार्थ ने उसे बाहों में भर लिया और यह कहते हुए उसे चूमने लगा कि “क्यों न वापस लौटकर हम अपनी शादी की बात अपने घर पर करें? मुझे पता है कि हम दोनों के रिश्ते को सब स्वीकार कर लेंगे।” उसने तराना के शरीर को अपनी बाँहों में कसना शुरू कर दिया। इतना कि दोनों के अंग-प्रत्यंग और साँसें एक दूसरे को महसूस होने लगीं। इतने में तराना ने खुद को उससे छुड़ाते हुए कहा, “नहीं...यह नहीं हो सकता।” “लेकिन क्यों? क्या तुम्हें मैं पसन्द नहीं?” सिद्धार्थ ने उसे फिर से अपनी बाहों में भरने की कोशिश की लेकिन इस बार तराना कमरे से बाहर निकलकर बाहर रेलिंग पर जा पहुँची। “आखिर बात क्या है स्वीटहार्ट...तुम बतातीं क्यों नहीं?” कहते हुए सिद्धार्थ ने फिर उसे चूम लिया। अब तराना से नहीं रहा गया और वह एक दम से बोल पड़ी, “इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि मैं आपसे प्यार नहीं करती।”
सिद्धार्थ को जैसे झटका लगा “क्या...तुम मुझसे प्यार नहीं करतीं? तो फिर यह सब...तुम्हारा मुझसे बातें करना मेरे साथ यहाँ दिल्ली जाना और यहाँ आना...घर पर मेरा इंतजार करना...यह सब...यह सब एक झूठ है...धोखा है...क्या है यह सब?” 


“नहीं...न झूठ है और न ही कोई धोखा...हाँ मुझे आपके साथ घूमना, बातें करना अच्छा लगता है। मुझे आपके साथ समय बिताना अच्छा लगता है...लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपसे प्यार करती हूँ। आप मुझे अच्छे लगते हैं लेकिन एक दोस्त की तरह...मैं आपकी बहुत इज्जत करती हूँ...लेकिन प्यार नहीं कर सकती...” सपना ने उत्तर दिया।
तो...अब तक जो मैं तुमसे चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ उसको क्यों हँसकर सुनती रहीं...क्यों नहीं तुमने मुझे रोक दिया...बताओ तराना।


“इसलिए क्योंकि ऐसा कहते हुए आपके चेहरे की खुशी को धुएँ में उड़ाना नहीं चाहती थी। इसलिए मैंने कभी आपको नहीं टोका...लेकिन मैंने कभी आपसे यह भी तो नहीं कहा कि मैं आपसे प्यार करती हूँ...मैंने कोई धोखा नहीं दिया...आप समझने की कोशिश कीजिए...मैं तो बस आपकी खुशी चाहती हूँ...उसके लिए सबकुछ करने को तैयार हूँ...” वह सिद्धार्थ को एकदम पास आकर बोली, “जो आप कहें मैं करने को तैयार हूँ...” और अपनी नज़रें नीचे झुकाते हुए बोली, “बस प्यार नहीं कर सकती क्योंकि मैं अपना दिल किसी और को दे चुकी हूँ और उससे मैं किसी भी हालत में बेवफाई नहीं कर सकती।”


“इसका मतलब दिल्ली में जो कुछ हमारे बीच...उफ...क्या हो गया यह?” सिद्धार्थ वहीं बैठ गया।
मैं चाहती तो दिल्ली में आपको रोक सकती थी पर आपकी आँखों में अपने लिए आपका पागलपन देखा तो खुद को रोक लिया। मैंने सोचा कि कभी फुरसत में आपसे बात करूँगी। आपको समझाऊँगी। आप समझदार हैं मेरी बातों को समझ जाएँगे। मैंने कई बार कोशिश की कि आपको बताऊँ कि हम एक अच्छे दोस्त हैं, इसके आगे कुछ नहीं। आपके लिए मेरे मन में केवल एक दोस्त के जैसी फीलिंग्स हैं इससे ज्यादा कुछ नहीं...मैं आपसे प्यार नहीं करती लेकिन आपके प्यार की कद्र करती हूँ। आई एम सॉरी...मैं आपको यह सब अभी बताना नहीं चाहती थी, लेकिन अगर नहीं बताती तो आज...”


सिद्धार्थ पर मानों वज्रपात हो गया था। वह चुपचाप पलंग पर लेट गया। उसके मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे। तराना बोले जा रही थी, “देखिए मुझे गलत मत समझिए...मैं आपको दुख देना नहीं चाहती...मैं तो बस यह कह रही थी कि आप...”


“प्लीज़ तरु...लीव मी अलोन” सिद्धार्थ ने बीच में ही टोकते हुए कहा, “सो जाओ, रात बहुत हो चुकी है।”


दोनों एक दूसरे की ओर पीठ करके लेट गए और सुबह होने का इन्तजार करने लगे, लेकिन रात थी कि कटने का नाम ही नहीं ले रही थी। तराना खुद को दोषी मानने लगी। उसे लगा कि सिद्धार्थ के अरमानों का खून करके उसने अच्छा नहीं किया। उसने एक निर्दोष प्रेमी की आत्मा का हनन किया है। वह स्वयं को कोसने लगी कि पहले ही सबकुछ बता देती तो अच्छा था। आज जब वह खुद सिद्धार्थ को जन्मदिन पर खुशियाँ देने आई तो...लेकिन वह करती भी तो क्या करती? क्या सिद्धार्थ जो चाहता है वह हो जाने देती? क्या बस इसी सम्बन्ध पर हमारा रिश्ता कायम रह सकता है? क्या हमारे बीच दोस्ती का रिश्ता नहीं हो सकता? क्या स्त्री-पुरुष के मध्य स्वस्थ मित्रता का कोई स्थान नहीं है? न जाने कितने प्रश्न रह-रहकर उसके मन में उठने लगे। क्यों सबको खुशी देने का उसका सपना पूरा नहीं हो पाता? क्यों हर बार दूसरों के दुख का कारण वही बनती है?


नींद दोनों में से किसी को नहीं आ रही थी, वह सिद्धार्थ की ओर मुड़ी और ‘आई एम सॉरी’ कहते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा। सिद्धार्थ ने उसकी ओर बिना मुड़े कहा, “तुम मुझे पहले बता देती तो मैं अपने सपनों पर लगाम लगा देता। तराना! तुमने ऐसा क्यों किया? क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं था या तुम मेरा इम्तिहान ले रही थीं? और आज मुझे सच बताकर तुमने मुझे बहुत दुख दिया है। काश! तुम पहले...यू शुड टेल मी अरलियर...” तराना ने देखा कि सिद्धार्थ की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसकी आँखें लाल हो रही थीं। 
तराना आत्मग्लानि से भर उठी और हिचकते हुए बोली, “आप रोइए मत प्लीज़। मैंने कई बार कहना चाहा पर...हम एक अच्छे दोस्त बनकर भी तो रह सकते हैं।”
सिद्धार्थ ने सिर्फ इतना कहा, “सो जाओ...कल जल्दी उठना है...हम वापस चलेंगे।”


“नहीं...आपका जन्मदिन भी तो मनाना है और आपको गिफ्ट भी तो देना है, आपके जन्मदिन का...” तराना ने बनावटी हँसी हँसते हुए कहा।


“थैंक्स...मुझे गिफ्ट मिल गया...सो जाओ...” सिद्धार्थ ने उत्तर दिया। तराना कुछ नहीं बोल पाई और चुपचाप लेट गयी।

यह सब उसके मानस पटल पर एक चलचित्र की भाँति चल रहा था कि पापा की आवाज़ आई, “तरू...क्या कर रही हो छत पर इतनी देर तक? नीचे आओ...रात बहुत हो गयी है।” आई पापा कहते हुए वह नीचे उतर आई और बिस्तर में लेट गयी, लेकिन अब भी उसके मन में वे बीती बातें चल रही थीं...

 

अगले दिन सिद्धार्थ और तराना वापस आ गये। तराना उस दिन वहाँ रुककर सिद्धार्थ का जन्मदिन मनाना चाहती थी। वह चाहती थी कि आज सिद्धार्थ को वह सारी खुशियाँ दे जो वह चाहता है, लेकिन सिद्धार्थ ने उसकी कोई बात न सुनी और दोनों अपने शहर वापस आ गये।
तराना रास्ते भर सिद्धार्थ को कई प्रकार हँसाने और बात करने की कोशिश करती रही, लेकिन उसने कोई रुचि नहीं दिखायी। मानों वह जड़ हो चुका था। इसका अहसास तराना को हो चुका था। सिद्धार्थ की हालत देखकर वह बार-बार उसे ‘सॉरी’ बोलती, पर सिद्धार्थ उससे सिर्फ एक ही बात कहता... ‘हर सपना पूरा नहीं होता’।


तराना को उसके घर छोड़कर सिद्धार्थ चुपचाप वहाँ से चला गया। उसके बाद कई दिनों तक सिद्धार्थ  की कोई खबर नहीं आयी, कोई मैसेज नहीं, कोई फोन नहीं। तराना ने कई बार उससे सम्पर्क करने की कोशिश की लेकिन सिद्धार्थ का कुछ पता नहीं चला। कई दिनों के बाद उसने जो सुना उससे उसके पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी। उसका शरीर शून्यवत् हो गया। वह मानों जीते-जी मर गयी। उसने सोचा भी नहीं था कि सिद्धार्थ आत्महत्या भी कर सकता है। वह खुद को सिद्धार्थ का क़ातिल मानने लगी।  
वह इस बात का निर्णय अभी तक नहीं कर पायी थी कि क्या सिद्धार्थ सचमुच उससे प्यार करता था? अगर प्यार करता था तो उसे समझ क्यों नहीं पाया? वह क्यों नहीं जान पाया कि प्यार करने का मतलब प्यार पाने से नहीं है? वह क्यों नहीं समझ पाया कि प्यार आत्मा से होता है, शरीर से नहीं? प्यार का मतलब हमेशा मिलन नहीं होता, प्राप्ति नहीं होता अगर ऐसा होता तो राधा और कृष्ण का प्यार दुनिया में पूजा नहीं जाता। वह खुद नहीं समझ पायी कि सिद्धार्थ का यह प्यार कैसा था? वह तो सिद्धार्थ को सिर्फ खुशी देना चाहती थी। सिद्धार्थ उसे नहीं समझ पाया या वह सिद्धार्थ को समझा नहीं पायी? यही सब सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आयीं और आँसू कनपटी से होते हुए तकिये में समाने लगे। रात कब बीत गयी पता ही नहीं चला।


सुबह तड़के ही उठ बैठी और अनमनी सी कॉलेज जाने की तैयारी करने लगी। उसके दिमाग में बार-बार यही विचार आ रहा था कि मैं नौकरी से त्यागपत्र दे दूँगी, फिर न अमर से कोई बातचीत होगी और न ही इतिहास खुद को दोहराएगा। लेकिन अगले ही पल मकान का किराया, पापा की बेरोज़गारी, मम्मी की दवाई और भाई की पढ़ाई जैसे खर्चे उसका मुँह ताकने लगे। 


बस में बैठे-बैठे फिर उसके मन में वही पीड़ा उठने लगी। वह सोचने लगी, ‘क्या मुझे अपनी मर्ज़ी से प्यार करने का रिश्ते बनाने का अधिकार नहीं है? क्या सिद्धार्थ और अमर जैसे लोगों द्वारा थोपा जाने वाला प्यार ही मेरी किस्मत में है? मेरी भी अपनी खुशियाँ हैं, सपने हैं, उमंगे हैं, पसन्द-नापसन्द है... मुझे भी अपना जीवन अपनी तरह से जीने का अधिकार है। नहीं...अब और नहीं...मैं अमर को आज ही साफ-साफ मना कर दूँगी, जिससे वह कोई सपना अपने मन में न पाल बैठे’। उसने मन में निश्चय किया लेकिन अगले ही पर सिद्धार्थ की याद आते ही सिहर उठी, ‘अगर मैंने पहले ही सिद्धार्थ को मना कर दिया होता तो वह...’ उसकी आँखें धुँधला गयीं। 


बस अपने स्टाप पर रुक चुकी थी। वह बस से उतरी और मजबूत कदमों से कॉलेज की ओर बढ़ने लगी। उसका हर कदम पहले से अधिक दृढ़ता और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहा था। अभी कॉलेज में  प्राचार्य और एक दो चपरासियों के अतिरिक्त और कोई नहीं आया ता। वह स्टाफ रूम मे आ गयी। अपनी अलमारी से एक सादा कागज़ निकाला और कुछ लिखने लगी। लिखते-लिखते वह सोच रही थी, ‘अभी जाकर प्रिंसिपल सर को रिज़ाइन सौंप देती हूँ। सारा किस्सा ही खत्म।’


लिखाई पूरी होने के बाद उस कागज़ को एक लिफाफे में डाला और उसे लेकर प्राचार्य के कार्यालय की ओर पहुँच गयी। “मे आय कम इन सर?” उसने पूछा। “ओ...यह मैडम आइए...आज जल्दी आ गयीं...चलिए अच्छा है” प्राचार्य ने बिना रुके कहना शुरू कर दिया, “मैडम आपका वर्क लोड बढ़ गया है। देखिए स्कालरशिप के फार्म  आ चुके हैं और आपको उसका हेड बना दिया गया है। अब पूरे कॉलेज के स्कालरशिप फार्म आप जमा करेंगी और उसका सारा ब्योरा अवस्थी जी के साथ कम्प्यूटर पर चढ़वाएँगी। इट्स योर रिस्पन्सिबिलिटी...एनी प्राब्लम?” “न...नहीं...सर...लेकिन...” उसने हिचकते हुए कहा। “अरे मैडम आपका वेतन भी बढ़ा है...आप चिन्ता मत कीजिए। अतिरिक्त कार्यभार अतिरिक्त पैसा अपना तो यही उसूल है” कहते हुए प्राचार्य जी ने जोर से ठहाका लगाया। वह भी उनके साथ हँस दी और उनके कार्यालय से बाहर आकर अपने त्यागपत्र को देखा। उसे देखते ही माँ की बातें याद आ गयीं “...बेटा तेरी तनख्वाह कब तक मिलेगी?...आज गुप्ता जी मकान के किराये के लिए पूछ रहे थे।” दो मिनट को उसे कुछ सोचा फिर त्यागपत्र के टुकड़े-टुकड़े करके कूड़ेदान में डालकर स्टाफ रूम की ओर जाने लगी। उसके कदमों में वही दृढ़ता और आत्मविश्वास अब भी दिखाई दे रहे थे। 

 


 


तारीख: 03.11.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त









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