छोड़कर बम पटाखे मैं एक दीपक जलाऊंगी,
उसे भी किसी गरीब की देहरी पर रख आऊंगी।
रख आऊंगी एक दीपक शहीदों की मजारों पर,
याद करके उनकी कुर्बानी को शीश झुकाऊंगी।
डरें नहीं मेरी माँ बहनें सुनसान अँधेरी राहों में,
जलाकर दीये अँधेरी राहों को रौशन बनाऊंगी।
छोड़कर आधुनिकता की इस अंधी चकाचौंध को,
रीति रिवाजों से दीवाली मनाकर फर्ज निभाऊंगी।
लबों पर दौड़े किसी के मुस्कान मेरी वजह से भी,
कुछ इस तरह से अबकी बार दीवाली मैं मनाऊंगी।
"सुलक्षणा" की तरह निकल पड़ी हूँ लेकर प्रण मैं,
ज्ञान का दीया जलाकर अज्ञानता को दूर भगाऊंगी।