दबा हुआ वो घाव तिलिस्मी
बस खत्म होने को आता है
उठने का मनोरथ जब दिल का
अपने परवान पे आता है,
वहीँ भीतर का साहस दिल के
खड़ा जवाब दे जाता है
जब सावन आ जाता है,
हाँ जब सावन आ जाता है।
बैठ अकेला वीराने में ये
मन अपनी धुन सा गाता है
न सुनता फिर न समझता है कुछ
खड़े खड़े कहीं गुम सा जाता है
बस वहीं ये बसन्त इस मन का
बिलकुल पतझड़ हो जाता है।
जब सावन आ जाता है,
हाँ जब सावन आ जाता है।
वो कोयल की कूक मन की
कर्कश अनुभव हो जाती है
सिंचित वृक्ष वह ढाढ़स का
टूट धरा पर गिर जाता है
वैचारिक मरहम और मशविरा
सब गाली सा हो जाता है
जब सावन आ जाता है,
हाँ जब सावन आ जाता है।
तराने फीके लगते है वो
चाँद में दाग नज़र-सा आता है
शुक्र है उस काले मेघा का जो
बेहया को घूँघट डालते जाता है।
चाँद में न अब चेहरा दिखता क्यों
क्यों मन मचल अब जाता है
जब सावन आ जाता है,
हाँ जब सावन आ जाता है।
क्यों शमा समा आगोश समां के
बेहयाई-सा पाठ पढ़ाती है
अहसास बेदर्द वर्षा की बूंदों का
क्यों तन को बहुत जलाता है
क्यो मनः उमड़ और क्षितिज घुमड़
'निरंजन ' को बहुत सताता है,
क्यों सावन ये आ जाता है,
हाँ क्यों सावन आ जाता हैं।