जब किसी के साथ बलात्कार होता है, तो क्या गुजरता है उसके अंदर, क्या महसूस करती है वो, कैसे सवाल आते है उसके मन में, इस कविता के द्वारा वो सब बताने का एक प्रयास किया हूँ .
जब वो रात याद आती है ,
मेरी रूह को कंपकपाती है ,
और मेरे जिस्म के अंदर ,
एक डर का एहसास कराती है .
जब वो रात याद आती है ,
एक अँधियारा साथ लाती है ,
जो मुझे अपने चारो तरफ घेरकर ,
मेरी जीने की चाह बुझाती है .
उसी अँधेरे में वो चेहरा दिखाई पड़ता है ,
जिसकी आँखों में वो हवस दिखाई पड़ता है ,
वो चेहरा हँसता है, मुस्कराता है,
मेरी दर्द और तकलीफों का मजाक उड़ाता है .
वो उसी जिस्म पे हँसता है ,
जिस जिस्म को उसने नोचा था ,
वो उसी जिस्म पे हँसता है ,
जिस जिस्म पे उसने, अपनी हवस को मिटाया था .
कि कैसे उसकी हाथों ने, मेरे जिस्म को जकड़ा था ,
कि कैसे उसकी दरिंदगी ने, मेरे जिस्म को कुचला था ,
जब वो रात याद आती है ,
वो हैवानियत भी याद दिलाती है .
दर्द से तड़प रही थी, सड़क के एक ओर ,
चीख रही थी, पुकार रही थी, सड़क के एक ओर ,
कई लोग गुजरे थे वहाँ से ,
पर कोई न आया मदद को उस ओर .
हर एक की आँखों में, एक बेसहारा,नंगा शरीर तड़पता दिख रहा था ,
जो शायद अपनी मौत का इंतज़ार कर रहा था ,
मेरा जिस्म नंगा था, क्योंकि मेरे जिस्म से कपड़े अलग हुये थे ,
पर उस रात तो मेरे सामने, यह समाज नंगा दिख रहा था .
जब वो रात याद आती है ,
समाज का वो नंगापन याद दिलाती है ,
और साथ ही साथ ,
कई सवाल मन में जगाती है .
कहता है यह समाज, कि चली गई मेरी ईज्ज़त ,
पर समझ नही आता, कैसे चली गई मेरी ईज्ज़त ,
किसने रखा था, मेरी योनि में ईज्ज़त ,
गलत तो किया था उस दरिंदे ने, जानी तो चाहिये थी उसकी ईज्ज़त .
फिर न जाने क्यों, यह समाज उसे अपना लेता है ,
न जाने क्यों, उसको एक सदस्य बना लेता है ,
और न जाने क्यों मुझे ही गलत बताकर ,
मुझसे ही दूरी बना लेता है .
जब वो रात याद आती है ,
ये सारे सवाल साथ लाती है ,
और फिर मुझको ,
एक अकेलेपन का एहसास कराती है .