जिंदगी

क्षितिज में दूर कुछ लकीरें देखीं--
मुखौटा सा जान पड़ता है
पहचाना तो नही ; हाँ अनजाना भी नही लगता
चल पड़ी हूँ उस और---


नज़र मिलाई, थोड़ा ठिठकी,संभली थोड़ा,
आँखें फाड़ कर देखा, मसला ,कुछ झपका कर देखा-
यकीन ना आया जब अपने ही अक्स से नज़रें मिली
थोड़ी थपकी और थोड़ी डपट मिली


नज़र मिली, कभी नीचे डलीं
अक्स क्या, ज़ि न्दगी का हिसाब था
 भला बुरा , सही गलत-हर पन्ने पर सब कुछ साफ था


जाना तब कि खुदा हम में ही बसता है
ध्यान दो, तो इशारे हमें करता है
तुम खुदा हो, दावा यह करता है
शैतान मगर मन, सबकुछ अनसुनी करता है


नाहक ही फिर हैरान सा फिरता है
गिरता कभी ,लहूलुहान वो होता है
कमॆ के बंधन में फँसता, कभी निकलता है


खुदा फिर भी यही कहता है-
खुद को ही खुदा हम सब गर मान लें;
सभी को वो मान दें, प्यार का पैगाम दें
कोई ना फिर गलत होगा ,न रुसवा न हलाकान होगा
हर तरफ फिर खुदा ही खुदा होगा, खुदा ही खुदा होगा।
 


तारीख: 12.08.2017                                    मुक्ता दुबे









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है