रचना(कविता) के भाव

मेरे कहने का अभिप्राय वही जो शब्दों में बताता हूँ।
कोई दो मतलब की बात नहीं मेरा सच ही कहता जाता हूँ।
तू देख मैं तेरी आँखों से मंद मंद मुस्काता हूँ।
कभी ख़ुशी बन छलकता हूँ कभी नैनों का नीर कहाता हूँ।

तू नाखुश सा लगता है जब एक फुलवारी बन जाता हूँ।
तुझे नींद नहीं आती है जब स्वप्न की तान सुनाता हूँ।
तेरी बारिश की चाहत देखूँ तो मैं बादल बन जाता हूँ।
पाकर तुझको बेबस सा मैं अतुलित साहस बन जाता हूँ।

कभी दीपशिखा की ज्योति लगूँ कभी धूप में निर्मल छाँव सा।
बन माथे का चन्दन महकूँ कभी राँझे के गाँव सा।
कभी शिव का डमरू बन बैठूँ कभी साहस्र भुजाओं सा। 
मैं युद्ध का विस्त्रित वर्णन हूँ राणा के अस्सी घाव सा।

कभी दो प्रेमी की बात करूँ कभी देश प्रेम बन जाता हूँ।
कभी वाल्मीकि के शब्द बनूँ कभी मीरा के संग आता हूँ।
इस धरा पे कौन अमर सा है पर मैं अविनाश कहाता हूँ।
कभी कृष्ण की बंसी में लिपटा कभी भूत प्रेत बन जाता हूँ।


तारीख: 05.06.2017                                    विवेक सोनी









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