शारदे!
केवल इतना कर दे;
ज्यों तूने पीड़ा के प्रति पल पर
गीत की लगायी मुहर, किया अमर
अश्रु और आँहों को, मंथन कर
भावों का अतिशय, और सिहर सिहर
शोक-तप्त मानस को टेक दिया कविता पर;
वैसा ही सुख को सम्मान दे,
मुझको बस इतना वरदान दे,
जीवन में जब-जब जागे बसंत
कविता का छूट नहीं पाए पंथ;
शणिक हास पीड़ा-सा उर्वर हो, वर दे;
मानस को सुख भी ऐसा रुचे अनंत,
भावों में इतनी सिरहन भर दे!
सबसे मधुर गीत न हों पीर के;
सुख के भी गीत मधुरतम कर दे !