वो स्त्री जिसने,
जन्म से मरण तक,
ठिठुरन से जलन तक,
अब्र से कब्र तक,
जब्र से सब्र तक,
सुबह से रात तक,
चलती-उखड़ती साँस तक
घटते-बढ़ते रक्तचाप तक
देह के बढ़ते ताप तक
नींद से लेकर जाग तक
हँसी से ऊंचे विलाप तक
चुप्पियों से ऊंची नाक तक
जन्मदिन से ब्याह तक
धूएं से लेकर धक्कड़ तक,
आठ की होकर पिचहत्तर तक
रोज़ खाना पकाया,
हर आए गए को दिल से
पेटभर खिलाया !
वो अन्नपूर्णा,
आखिरी दिनों में असहाय
बिस्तर पर पड़ी,
कागज की पुड़िया में
नमक-मिर्च बाँधे
सिरहाने क्यों रखा करती है ?
असल में वो,
'मुझे भूख लगी है!'
कहने की 'शर्मिंदगी' से बचा करती है !