अवतार

सुन्दर आलीशान घर,
चमचमाता संगमरमर,
पत्थरों का ही जमावाडा था बस वहाँ,
हाँ सालों से बस पत्थर ही पत्थर थे।
घना अँधेरा छुपाए था भूतिया दीवारों को
जिंदगी का कोई निशाँ नहीं था, न ही इजाजत थी
बेजान समां, बेजान सबा,
बेजान हैं हम, बेजान, चिल्लाते थे घर के दरवाजे।
घर में लोग थे ?
हाँ थे लोग, पर वही
बेजान लोग, सडे हुए, ठहरे पानी जैसे।
था जैसा घर, थे वैसे ही लोग,
पत्थर! पत्थर!
काले संगमरमर!
 
 
पर हुआ यूँ की बारिश हुई,
बूँदों की नमीं से सन्नाटा भी बहा,
और अँधेरे का कालापन भी,
कुछ प्रकाशित हुआ, उजला उजला सा चेहरा जगा
चटका भी कुछ, चटका कुछ छत और लोगों के अन्दर
थे कुछ तीर लगे
और दरारों ने डाल दी बूँदें घर में।
जिंदगी का आगाज हुआ, 
छत पर एक पौधा फूटा
पीपल का पौधा,
हरा-भरा, इठलाता सा, झूमते हुए कुछ-कुछ
जिंदगी की खुशबू से सम्मोहित करने लगा
दरवाजे चुप! अचंभित! चुप!
 
 
पता है फिर क्या हुआ?
क्या?
नादानों ने सोचा,संगमरमर की शोभा बिगाडेगा,उखाडकर फेंक दिया !
नोंच-नोंच कर पत्ते उडा दिए हवा में
पौधा बडा होगा, ज्ञात था उन्हे
उखाडकर फेंक दिया !
 
 
अब कुछ नहीं था,
जैसे कुछ हुआ ही नही, कोई आया ही नही
फिर वही सब वैसा ही
पत्थर!
कालापन!
भूतिया दीवारें!
अँधेरा!                  


तारीख: 28.06.2017                                    पुष्पेंद्र पाठक









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