काल की निगाह को
छलकर
सपनों के अंगुली थामे
भागा भागा सा
निकला था
मैं घर से...
बीच राह में आकर
फँसा हुआ हूँ
इच्छाओं का जाम
लगा है आगे
बेकाबू होकर निकल पडी
इच्छाएँ
भीड गई है
एक दुसरे से
सूरज ठठाकर
हँसा है मुझ पर
मैं निरीह, असहाय सा
खडा हूँ
बीच राह में
क्या करूँ
कुछ सुझता नहीं
फिर भी
मैं पराजित नहीं हूँ
चक्रव्युह में फँसा
अभिमन्यु की तरह!