कोड की इस दुनिया में दिमाग़ उलझा मिलता है
कुछ लिखें तो 'error', न लिखें तो 'null' मिलता है
कभी मीटिंग्स का सिलसिला कभी 'बग फिक्सिंग' का,
बचे वक्त में थोड़ा कोड कर, दिन निकलता है
बॉस का वो मेल पढ़कर टेंशन में आ जाते हैं
सोचते रहते हैं, 'ये deadline कैसे निकलता है!'
सपने थे दुनिया घूमने के, कुछ अलग करने के
'ऑफिस कैंटीन' में बैठ कर प्लान्स बदलता है
वो 'ऑन-साइट' का ख़्वाब है जो आँखों में सजता है
मगर घर से दूर जाने का ख्याल बहुत खलता है
वो अप्रेज़ल की घड़ी सर पे आकर खड़ी हो जाए
सोचें, साल भर की मेहनत का क्या इनाम मिलता है
कंपनी का 'layoff' का वो मेल जो अक्सर आ जाता है
दिल दहल जाता है, "अगला नंबर किसका निकलता है?"
छुट्टी मांगने की हिम्मत भी हो तो कहाँ होती है
'urgent fix' बता कर, सब काम बिगड़ता है
तनख्वाह की वो स्लिप देखकर थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं
फिर सोचते हैं – EMI, बिल, कहाँ तक ये पैसा चलता है