एकलव्य की गुरु-दक्षिणा

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हे गुरु करो आदेश अभी मैं तत्पर शीश चढाने को ।

अंगुष्ठ है मेरा तुच्छ भेंट, कहो राज्य जीत के लाने को ।

मैं निपुण धनुर्धर धरती का, ये भेद तुम्हे बतलाता हूँ ।

दे दो अवसर मुझे आज अभी प्रत्यक्ष तुम्हे दिखलाता हूँ ।।

 

मैं दन-दन् बाण चलाता हूँ, वीरों के दिल दहलाता हूँ ।

सूरज भी डर छिप जाता है, मैं ऐसा शौर्य दिखाता हूँ ।

है किसके बाणों में वो दम, जो काट सके मेरे बाणों को ।

इस जग में वीर कहाँ कोई, जो हर ले मेरे प्राणों को ।।

 

रणभूमि सिंह सा जाता हूँ, मैं यम से आँख मिलाता हूँ ।

सेनायें भी थर्राती हैं, ऐसी प्रत्यंचा चढ़ाता हूँ ।

मैं कुरु का वंशज भले नहीं, पर कुरु सदृश संग्रामी हूँ ।

मुझमें बसता है रण कौशल, मैं रणक्षेत्र का स्वामी हूँ ।

भीष्म सा जग में वीर नहीं, ये सत्य अभी झुठलाता हूँ ।

आज्ञा का दो आशीष मुझे, मैं भीष्म से द्वंद मचाता हूँ ।।

 

बाणों से आग धधकते हैं, बाणों से मेघ बरसते हैं ।

दम-दम चमके बिजली घन में, मैं ऐसा बाण चलाता हूँ ।

गंगाा का पथ जो रोक सके, बाणों का बाँध बनाता हूँ ।

गुरु द्रोण चुनो मुझे शिष्य आज, मैं स्वर्ग जीत के लाता हूँ ।।

 

वो वीर ही क्या जो लड़ा नहीं, संग्राम वेदी पर चढा नहीं ।

वो वीर नहीं कायर है वो, पग जिसका रण में पड़ा नहीं ।।

 

वीरों का ऐसा हस्र ना हो, यूँ वीर कोई निशस्त्र ना हो ।

कोई वीर ना बांधे बंधन से, वीरों का सूर्य कभी अस्त ना हो ।।

 

हे गुरु सूनो विनती मेरी, मुझको इक प्रबल चुनौती दो ।

धरती का उत्तम वीर चूनो, मुझको मेरा प्रतिद्वंदी दो ।।

 

वीरों का एक ही परिचय है, वीरों की जाती नहीं होती ।

सामर्थ्य राजसी रत्न नहीं, बिन जीते ख्याति नहीं होती ।

है किसमें बल जो साध सके, मुझको बाणों से बाँध सके ।

धरती पर कौन धनुर्धर है, जो मेरी प्रत्यंचा काट सके ।।

 

हे गुरु कहो क्या योजन है, मैं किसके जय का संकट हूँ ।

किसके सिर मुकुट सजाना है, क्या मैं कुरु वंश का कंटक हूँ ।

ये शस्त्र मेरे आराध्य प्रभु, बिन लड़े ये जीवन व्यर्थ ना हो ।

ऐसा जीवन किसकी मंशा, जिसमें युद्ध का अंश ना हो ।

निज लहू मुझे धिक्कारेगा, ये शौर्य मेरा चित्कारेगा ।

जयकारा करने वाला जग, मुझे नीची आँख निहारेगा ।

गुरु मुझको ऐसा पाप ना दो, ऐसा भयंकर शाप ना दो ।

गुरु कर देना संहार मेरा, पहले मुझे रण का अवसर दो ।

स्वेच्छा से आज मरूँगा मैं, पर मेरे बल का उत्तर दो ।।

 

उद्घोष करो, जयघोष करो, कि मुझसा वीर अजन्मा हूँ ।

हे गुरु आज पहचान करो, क्या मुझसा शिष्य कभी जन्मा है ।।

 

धरती के वीर इकट्ठे हों, बन खड़े हो सामने प्रतिद्वन्दी ।

है ऐसे युद्ध की चाह मुझे, जहाँ बाँण गिरे बन रणचंडी ।।

 

हे गुरु मुझे बतला दो तुम, इतिहास मुझे क्यों याद करे ।

क्या है मेरी उपलब्धि वो, जिस पर ये जग संवाद करे ।

एकलव्य वीर था जग माने, ऐसी कोई युक्ति दे दो ।

हे गुरु करो स्वीकार मुझे, चरणों में मुझे भक्ति दे दो ।।

 

हे गुरु मुझे अफसोस नहीं, अंगुष्ठ दान का शोक नहीं ।

गुरु द्रोण समर्पित तन मेरा, घनघोर है हर्षित मन मेरा ।

गुरु अभी दक्षिणा देता हूँ, अंगुष्ठ काट के देता हूँ ।।


तारीख: 28.02.2024                                    अजीत कुमार सिंह









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