ईश्वर की व्यापकता और मेरी सोंच

हम सब जानते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है । लेकिन फिर भी हम उसे खोजने
की कोशिश करते हैं । तो चलिए देखते हैं वो किन लोगों को कहाँ मिलता है ।

ऐ मेरे ईश्वर,

जो कर्म में विश्वास करते हैं ,
अहर्निष कर्म में लीन रहते हैं ,
कर्म ही पूजा है जिनका ,
कर्म में सब कुछ ही सहते हैं ,
ऐसे कर्म योगियों का ,
तू कहीं कर्म फल तो नहीं ?

जो बेघर हैं,
खुले आकाश तले सोते हैं ,
ठिठुरते हैं सर्दियों में, बरसात में भीगते हैं ,
और गर्मियों में रोते हैं ,
ऐसे गृह विहीन लोगों के
तू सपनों का महल तो नहीं ?

जो वनवासी हैं ,
नित वन में विचरते हैं ,
सहते हैं अत्याचार मानवों के ,
अपने घर को उजड़ता हुआ देखते हैं ,
ऐसे बेजुबान प्राणियों का
तू हरा – भरा जंगल तो नहीं ?

जो अवसाद ग्रस्त हैं ,
सदा ही चिंतित रहते हैं ,
सुख को भोगने से उन्हें डर लगता है ,
सदा दुःख के प्रकोप सहते हैं ,
ऐसे बेचारे लोगों के परिजनों का ,
तू कहीं कुशल – मंगल तो नहीं ?

जो अकेले हैं ,
जिनका यहाँ कोई नहीं है
जो सदा अपनों की तलाश करते हैं ,
जिन्हें लगता है उनका कोई तो कहीं है
ऐसे एकाकी लोगों के
तू माँ का आँचल तो नहीं ?

जो पलायित हैं ,
जीविकोपार्जन को बाहर जाते हैं |
अपने लोग -अपनी माटी को ,
सदा देखने को ललचाते हैं |
ऐसे व्यस्त लोगों के परिजनों के साथ,
तू फ़ुरसत के कुछ पल तो नहीं ?

जो अकाल-ग्रसित हैं ,
जिन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं है ।
प्यास रह-रह के सताती है उन्हें ,
और एक चुल्लू पानी तक करीब नहीं है ।
ऐसे क्षुधा-त्रस्त लोगों को प्राप्त,
तू कहीं अन्न -जल तो नहीं ?

जो निःसंतान हैं,
जिन्हें बुढापे में सहारे की चिंता सताती है ।
जिनका अपना कोई वारिस नहीं है,
और दुनिया जिन्हें बाँझ बताती है ।
ऐसे दुखी जनों के गोद में ,
तू शिशु चंचल तो नहीं ?

जो दुर्जन थे ,
बुरे कर्म किया करते थे ।
पर अब किये का पछतावा है उन्हें ,
जो इंसानों के रक्त से अपना घर भरते थे ।
ऐसे प्रायश्चितरत लोगों के ,
तू नेत्र सजल तो नहीं ?

जो तपस्वी हैं,
नित तप में लीन रहते हैं ।
नाम लेते हैं अनगिनत तेरे ,
और इस क्रिया को जप कहते हैं ।
ऐसे सन्यासी, तेरे खोजियों को क्या पता ,
तू सबके शरीर का हलचल तो नहीं ?


तारीख: 15.06.2017                                    विवेक कुमार सिंह









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