शब्दों के कुछ जोड़ -तोड़ से,
कोरे कागज पर गढ़ दी जाये,
दर्शक दीर्घा के सम्मुख में,
तुकबंदी से जो पढ़ दी जाये,
रचना भले ही वो कहलाये,
पर कविता नहीं कहा सकती है|
कविता में लगता लघुतम प्रयास,
मुख से निकले वो अनायास|
बाहर के कुछ दृश्य देखकर,
अभ्यन्तर के जब तार टूटते जाते हैं,
वाणी से तब स्वयं आप ही,
कविता ही के शब्द फूटते जाते हैं ||
आत्मा की मार्मिक पीड़ा जब,
उमड़ -उमड़कर,
शब्दों में सन जाती है,
तब मुख से निकली मूक वेदना,
स्वयं काव्य बन जाती है||