काश,
फागुन के इस
बासंती मौसम में,
मैं एक गंवई-देहातन
सद्यस्नाता सी,
किसी अलसाई
दोपहरी में,
अमुआ के पेड़ तले,
घर के काम-धाम निपटा ,
बैठ जाऊं पैरों में,
महावर की बेल सजाने!
और फिर सांझ के झुटपुटे में,
दबे पांव उतरूं,
अपने प्यार से लीपे,
तुम्हारे दिल के
गीले आँगन में,
कि एकबार जो
छाप लगे तो
फिर छूट न पाए!