आपाधापी और दौडधूप के
इस दौर में
कुंठा, हताशा एवं
चरित्र के दोगलेपन से
खण्डित व्यक्तित्व लिए
युद्ध से भागा हुआ
किसी सीपाही की तरह
डरा, सहमा-सहमा सा
जीता है
आज का मानव।
संशय में डूबता है
उतरता है
अक्षम है किसी निस्कर्ष तक
पहुँचने में।
पतन की राह को
जानते हुए
उसी पर चल पडता है
दोहराते हुए भूल बार बार।
बेसब्री से भरे
मनस्थिति लिए
वह जीता है टूकडों में
और मरता है टूकडों में
जीवन में
भोग की सामग्रियाँ
जुटाने की ललक
उसे चैन से जीने नहीं देती
अपूर्ण इच्छाएँ हैं
सपने में भी
तडपाती रहती है।
कितना दुखी है
आज का मानव
रात दिन दौड-धूप लगाकर
अचानक निकल जाता है
एक दिन
अनजान राह पर...