कालिदास के द्वारा रचित मेघदूत का हिंदी रूपांतर
ऐ मेघ! तेरे तन पर जो दिखती
मुझको श्यामल छाया,
तुमने भी क्या विरह में जलकर
पायी ऐसी काया?
या फिर, जगत के दूषण से है
मलिन तुम्हारा जल भी,
रोते नयनों से रिसता है
आँखों का काजल भी!
मैं यक्ष , हुआ शापित जब से
मेरे जीवन का आधार गया,
मेरा घर छूटा, अपने छूटे,
उस प्रियतम को भी हार गया.
कहते हैं भाग्य मनुज का
फूटे जब एक न चलता है,
अपनी ही आँखों के आगे
सब कुछ विपदा में जलता है.
हर ओर दिशाएँ गुमसुम हैं
आवाक से, स्थिर ये द्रुम हैं,
सदियों से हवा भी चली नहीं,
लगता है विपदा टली नहीं.
निश्चेत-सा ये परिवेश खड़ा
सब में लगता आवेश बड़ा,
क्यूँ हम आये इस उपवन में,
तुम से वंचित इस जीवन में?
तनी हुई प्रत्यंचा-सी
आकाश में एक कोलाहल है,
भू पर फैली उत्कंठा में
मिश्रित मारक हालाहल है.
तारों के टिमटिम दीपों पर
व्याकुल पतंग-सा मंडराता,
ये मेरा ही है प्राण प्रिये!
इससे-उससे ठोकर खाता.
मैं विह्वल हूँ, मैं पागल हूँ,
ऐसा कहकर हँसते हैं मूढ़,
कैसे मैं समझाऊँ इनको
अपनी वेदना का विषय गूढ़?
हो करुण रूदन या अट्टहास
मेरे लिए दोनों ही विलास,
एकांत है मेरा और तुम हो,
सब बोल रहे, बस तुम ग़ुम हो.
सपनों की छत पर झूल रही
तेरी छवि जैसे बोल रही,
मैं यहाँ नहीं, मैं वहाँ नहीं,
पर यहीं कहीं, मैं यहीं कहीं.
दिन का उजाला अब न भाता
पुतलियों में कुलबुलाता,
रात ही मेरी सखी है,
साथ मेरे वो जगी है.
दुःख में बिलखकर भी कहाँ
होता किसी का दुःख है कम,
सूखते हैं प्राण अन्दर
और बहते आँख नम.
पुतलियाँ भी सूखकर
हैं शूल-सी जाती अड़ी,
लुप्त होती चेतना की
धूल में लिपटी पड़ी.
तन की गुहा में भावना
करती रुदन अविराम है,
मेरे लिए इस सृष्टि में
लगता नहीं कोई काम है.
हर ओर मेरी खोज का
बस प्राप्त केवल शून्य है,
मेरे लिए तो अब यहाँ
ना पाप है, ना पुण्य है.
एक ऐसा ही दुर्भाग्य लिए
जब यक्ष पड़ा असहाय, निःसंग,
मदमस्त गजों-सा मेघों का
एक दल पावस ऋतु लायी संग.
शीतल बयार के झोंके से
जो वर्षा की आशा आई,
कुम्हलाये, सूखे जंगल में
हरियाली-सी मुस्काई .
कौन नहीं चाहेगा अपनी
प्रिय का संग ऋतु सावन में,
मैं ही केवल एक अभागा
भटक रहा व्याकुल वन में.
यक्ष के मन में भी उस क्षण
आशा की एक कली खिली,
लगा उसे अपने प्रियतम से
मिलने की एक राह मिली.
करने लगे मनुहार मेघ का
विरह से कातर मुख खोले,
गया पसीज ह्रदय मेघों का
बरस के दुःख से वो बोले.
"स्वीकार हमें ऐ बन्धु तेरा
करुणा से भरा निवेदन है,
जो कुछ भी हो सकता मुझसे
करने को तत्पर ये मन है!"
लेकिन नभ का ये यायावर
क्या खोज प्रिया को पायेगा?
विरह में जलते जातक का
सन्देश उसे पहुँचायेगा?
वायु का संचारण इसको
यहाँ-वहाँ ले जाता है,
तब ही तो बादल इस जग में
आवारा कहलाता है.
"लेशमात्र भी कलुषित ना हो
चित्त तेरा, ऐ मेरे सखा!
लगता है मेरे प्रभुत्व का
रस तूने अभी नहीं चखा!"
बिजली की बाहें थामे
जब गर्जन की उन मेघों ने,
भाप-सी उड़ गयी आशंका
मित्रों के भाव के वेगों में.
पुलक भार से काँप उठीं
विरह से जर्जर कोशाएँ,
मित्र वही और सखा वही
जो बुरे समय में काम आये.
हे पुष्कर कुल के कामरूप!
कर दो ये याचना पूरी,
खेद नहीं होगा कतिपय
यदि रह भी जाए अधूरी.
जाना है तुमको अलका
है यक्षों की जो नगरी,
जगमग जिनके महलों पर
शिवभालचंद्र की गगरी.
तुम्हें देखकर वहाँ विरहिनें
पुलकित हो नाचेंगी,
आशा के धागों में लटकी
मेरी प्रिया से कहेंगी.
"देख सखी! मृदु-मंथर गति से
डोल रहा अनुकूल पवन,
शायद ले तेरा संदेशा
आया है ये मेघ सघन.”
रुको तनिक मैं राह बता दूं
जहाँ से तुमको जाना है,
ग्रीष्म-विकल वनस्पतियों
को भी ठंढक पहुँचाना है .
थक जाओ अनिवार गति से
तो सुस्ता लेना शिखरों पर,
सूखे जो तन-मन तो रखना
झरनों का जल अधरों पर.
सोंधी-सी मालव भूमि पर
थोड़ा ही सही बरसना,
आम्रकूट वन में फैले
अग्नि का शमन भी करना.
भली-भाँति छाये छोरों पर
आम के जंगल, पके, निराले,
बीच शिखर पर बैठोगे तुम
चमकीले बालों-से काले.
श्याम वर्ण तुम पुष्ट-पीन से
धरती के फैले स्तन पर,
देखेंगे यह दृश्य मनोरम
देव-देवियाँ रस ले-लेकर .
थके जो तुम, ठहराएगा वह
अपनी चोटियों पर साभार,
अति अकिंचन भी करता है
उपकारी का सद्सत्कार .
पी लेना रेवा का पानी
विन्ध्य के सींचे जो पठार,
भरकर, गौरवमय होकर
गर्जन करना दो-चार बार
काँप कर डर से बालायें जब
लिपट जाएँ अपने सहचर से,
अति कृतज्ञ प्रेमी सब तुमको
भेजेंगे आशीष जी भर के.
सजल नयन मोरों का स्वागत
और केतकी के ये उपवन,
पार किये जाना जामुन से
लदे हुए दशरण के ये वन.
विदिशा में ले अंगड़ाई
ठहर बेतवा नदी के तीरे,
चपल, तरंगमय जल है उसका
पी लेना तुम धीरे-धीरे .
किसे ज्ञात है, कब हो जाए
इस चपला की अधोगति,
मर्त्यलोक में मिला है क्या
अमरत्व किसी को, कहीं कभी?
पहुँच अवन्ती, सुन लेना तुम
उदयन की कहानी,
धन - धान्यपूर्ण सद्जनों से शोभित
उज्जयिनी पुरानी.
सुंदरियों के चितवन का
रसपान न जो कर पाए,
समझूंगा लोचन से वंचित
दृष्टिहीन तुम आये.
भँवर-नाभि दिखाती चलती
'निर्विन्ध्या ' की धारा,
प्रणय-निवेदन से मुखरित
ये उज्जयिनी का द्वारा.
वेणी-सी पतली धार लिए
ना हो जाए परित्यक्ता,
बरसा कर जीवन रस अपना
दूर करो इसकी कृशता .
प्रियतम-सा विनयी चाटुकार
हंसों का कल-कूजन पसार,
शिप्रा का मृदु-मधुर समीर
हर लेता रति-ग्लानि के पीर .
वातायन से झूल रहे
सुंदरियों के केश सुगन्धित,
बन्धु-सुलभ स्नेह से नाचें
मोर, करेंगे मन को हुलसित.
मिल जायेगा चंडीश्वर
महाकाल का मंदिर वहीँ कहीं पर,
नीलकंठ-से श्याम मेघ!
तुम्हें देखेंगे शिव के गण सादर.
जवा के नव पुष्पों-से रक्तिम
सांध्य लालिमा लिए हुए तुम,
ऊँचे पेड़ों के बाँहों पार
भक्तिभाव से झुके हुए तुम.
रुक जाना वहाँ सांध्य काल तक
कर लेना शिव का तुम वंदन,
भींगा-सा गजचर्म ओढ़ाकर
पशुपतिनाथ का कर अभिनन्दन.
होगी पूरी शिव की अभिलाषा
देखेंगी तुम्हे तृप्त भवानी,
मन ही मन सराह कर देंगी
गर्जन की शक्ति और पानी.
घन तिमिर के कारण अन्धकार
राजपथ पर करती विहार,
मिलने को आतुर प्रियतम से
सुन्दरियों की लम्बी कतार.
कनक-कसौटी सी बिजली
हे बन्धु, तनिक छिटकाना तुम,
आलोकित कर पथ उनका
फिर उनके राह न आना तुम.
थककर चिर विलास के कारण
अपनी प्रेयसी विद्युत् को लेकर,
सो जाना किसी भवन के छत पर
प्रात-सवेरे चल देना फिर.
रात किसी के साथ बिताकर
जब लौटें प्रियतम अपने घर,
पोछेंगे उन नयनों का जल
जो वंचित थे प्रेम में पागल.
लौट रहा होगा सूरज भी
उषा की बेला में छुपकर,
नलिनी के मुख के हिम-अश्रु
पोछेगा ले किरणों का कर.
राह न आना सूरज के
लज्जित है, क्रोधित भी होगा,
प्रणय में बहके उसके मन का
हाव-भाव मिश्रित ही होगा.
गंभीरा के जल में उतरी
देख सलोनी तेरी छाया,
कुमुद-धवल और मीन सरीखे
नदी का चितवन भी हरसाया.
जैसे वसन संभाल रही हो
झुकी हुयी बेतों की छड़ियाँ,
श्याम-सलिल-चीर हटने से
खुले प्रवाह नितम्ब की लड़ियाँ.
कौन भला छोड़े ऐसे
संपर्क प्रेयसी के तन का,
पछता कर, बड़ी कठिनाई से
दमन करे आग्रह मन का.
उच्छवसित धरती की सोंधी
वास लिए चले शीत हवा,
देवगिरि की ओर चलो,
मादक सिहरन को लिए सखा.
देवगिरि में स्थापित
स्कन्द की प्रतिमा पर बरसा,
पुष्परूप बादल बनकर
फूलों से उनको तू नहला.
गरज, कि घाटी गूँज उठे फिर
देवगिरि कि हो विभोर,
श्रुतिसुखद तेरा गर्जन सुन
नाच उठे कार्तिक का मोर.
करके पूजा कार्तिकेय की
पानी लेने जब उतरोगे,
पता है, चम्बल के प्रवाह में
कैसे तुम जो दिखोगे?
ज्यूँ वक्षस्थल पर धरती के
लिपटी इक पतली-सी लड़ी,
उसके बीच गुँथे तुम जैसे
मुक्ताहार में नीलमणि.
दशपुर की सुन्दरियाँ बसतीं
चम्बल के उस पार,
भौरों के गुण से ओत-प्रोत
उनकी चितवन में धार.
चंचल पलकों के घेरे में
चमके पुतलियाँ काली,
गतिशील श्वेत आँखों के अन्दर
मादक-सी मतवाली.
ब्रह्मावर्त को छूकर तुम
कुरुक्षेत्र तक आ जाना,
कौरव-पांडव के साक्षी इस
युद्धस्थल पर छा जाना.
छिन्न हुए यहाँ राजपुत्र मुख
अर्जुन के तीखे वाणों से,
ज्यूँ कमलों को बेध गिराते
तुम अपनी बौछारों से.
कृष्णाग्रज हलधर बलदेव
पीते जिस सरस्वती का जल,
प्रियवर पयोद, करना सेवन
हो जायेगा स्वच्छ अंतस्तल.
तनिक बढ़ो तुम आगे
तुमको दिख जाएगी गंगा,
जैसे फेन के पंख फैलाए
बैठा श्वेत पतंगा.
शैलराज की तलहट में
बनकर सीढ़ी की कतार,
अभिशप्त सगरपुत्रों को
स्वर्ग ले गयी जिसकी धार.
वक्र भृकुटी लेकर गौरी
ईर्ष्यावश करती रहीं क्लेश,
अपने तरंग हाथों से शिव के
पकड़ लिए गंगा ने केश.
झुक कर नीचे तुम लम्बमान
ऐरावत-सा पी लेना जल,
धुल जायेंगे सारे विषाद
गंगाजल पवित्र, स्वच्छ, निर्मल.
गतिशील स्रोत में पड़ेगी जब
तेरी छाया बड़ी लुभावन होगी,
गंगा-यमुना के संगम-सी
ये छटा बड़ी मनभावन होगी.
कस्तूरी मृग के नाभि गंध से
सुरभित श्वेत हिमालय होगा,
श्रम से थके पथिक का इससे
सुन्दर और क्या आलय होगा?
शिव के श्वेत वृष के सींगों पर
लगे पंक-से काले तुम,
विचरण करना, हिम से सिहरे
इधर-उधर मतवाले तुम.
बहते समीर के झोंके से
जब द्रुम आपस में टकराएँ,
चिंगारी से देवदारू जब
वन में अग्नि फैलाएं ;
चमरी गायों के झबरीले
बालों पर झरे जब अतुल अनल,
तब तुम अपनी बौछारों से
प्रशमित करना ये दावानल.
क्रोधित होकर कभी कहीं
जो शरभ तुम्हें लाँघना चाहें,
तीव्रगति ओले बरसाकर
तितर-बितर कर देना उन्हें.
नगपति की ही किसी शिला पर
अंकित हैं शिव के चरण चिन्ह,
करते हैं निवेदित सिद्ध गण
जिनके निमित्त उपहार भिन्न.
निकट पहुँच तुम भी करना
श्री चरणों का मन से दर्शन,
किन्नरियों के गीतों के संग
मिल करना थोड़ा गर्जन.
परशुराम के क्रौंच द्वार से
उत्तर को बढ़ जाना,
थोडा ऊपर उठ , कैलाश के
शिखरों पर चढ़ जाना.
दर्पण का है काम लेतीं
जिससे देवों की बालाएँ,
नीले नभ में उज्जवल अपनी
शिखरों को ये फैलाए .
हाथी-दाँत के टुकड़ों जैसा
गोरा ये कैलाश,
तुम चिकने, काले काजल-से
आवोगे जब पास .
दिखोगे जैसे नीली चादर
गोरे बलदेव के कन्धों पर,
बड़े सलोने लगोगे प्रियवर
धवल गिरि के बंधों पर!
क्रीडा-पर्वत ये उमानाथ का
जिनके हाथों को गहकर,
आश्वस्त विचरतीं पार्वती
मणिमय शैल शिखर पर.
मत बरसाना उनपर तुम
रखना स्तंभित जल की खान,
भक्ति-भाव से झुक बन जाना
उनके पैरों का सोपान.
कैलाश की गोदी में बैठी
देख, है शोभित अलका नगरी!
जिसके भवनों पर झूले
मोती के झालर-सी बदरी.
हठी, छबीली तरुणियों की
चपल, चमक तेरी बिजली-सी,
रुचिर चित्र से जगमग घर पर
सतरंगी छाया तितली-सी.
कमल हाथ में, कुंद अलकों पर,
कुरवक गुँथे बालों में,
सौरभमय शिरीष की बाली
लटक रही कानों में.
सरों में कमलों को घेरे हैं
हँसों की जो पातें,
जगमग-पंख मयूर, नित्य
करते आपस में बातें.
खिले-अधखिले फूलों पर
भ्रमर मुखर मंडराएं,
नित्य ज्योत्सना के आनंद से
निशा का तम कट जाए.
अन्यथा नहीं दिखते अश्रु
यक्षों के आँखों में प्रियवर!
आजन्म युवा और यौवन का
मिला हुआ है उनको वर.
श्वेत-शुभ्र मणिमय महलों पर
प्रतिबिम्बित तारों की जगमग,
कल्पवृक्ष की मदिरा पीते
चुनी हुयी सहचरियों के संग.
गंगा के शीतल वायु से
अलका की सुंदरियाँ पुलकित,
उन्हें देख मुग्ध सुरगण का
मन भी रहता हरदम प्लावित.
रतिलीला को आतुर प्रियतम
वसन खींचते गाँठ खोलकर,
सहन नहीं होता लज्जा से
रत्नों से आलोकित जब घर.
तब कातर संकोच के मारे
सुंदरियाँ वो, वसन सम्हारे,
फेंक मारतीं चूर्ण मुष्टिभर
रत्नों से उगते प्रकाश पर.
पवन के संग जाकर उनके घर
फैल दीवारों के चित्रों पर,
जलतूली से उन्हें मिटा तुम
निकल भागते धूम रूप धर.
हट जाता जब तेरा घर
मध्य रात्रि में खिल उठता है,
चाँद भी, ज्योति की किरणों से
टपकाने पानी लगता है.
चंद्रकांत मणियों से टपके
बूँद-बूँद जो शीतल पानी,
वही मिटाता कामिनियों के
रति से थके देह की ग्लानि.
रात प्रेमियों से मिलने जब
प्रेयसियाँ झटपट चलती हैं,
कनक-कमल के कर्ण फूल
छिदी-भिदी, सब गिर पड़ती हैं.
खिसक-खिसक पड़ते हैं पथ पर
मंदार पुष्पदल इधर-उधर,
स्तन से दब टूटे हारों के
मोती गिरते बिखर-बिखर.
इसी मनोरम नगरी में
राज प्रासादों से हटकर,
सतरंगी तोरण से जगमग
दिखेगा तुमको मेरा घर.
निकट वहीँ लहराता होगा
मंदार तरु वो बड़ा दुलारा,
पौध वो पालित निज शिशु जैसा
प्रियतम के आँखों का तारा.
मरकत शिला की सीढ़ी वाली
स्वर्ण-कमलों से भरा सरोवर,
हँसों के दल से मुखरित ये
मेरे घर का मानसरोवर.
इसी सरोवर के तीर पर
क्रीड़ा शैल अपनी इक छोटी,
इन्द्रनील मणियों से जगमग
अपनी ये कृत्रिम-सी चोटी.
देख कौंधती बिजली को
तेरी गोद में लेता करवट,
नाच उठा है विह्वल होकर
मेरी यादों में वो पर्वत.
याद रहें ये चिन्ह मित्रवर!
पहचान हैं मेरे घर के,
द्वार पर अंकित शंख-पद्म
निरखेंगे तुमको जी भरके.
जैसे सूर्य बिना खो देता
कमल है अपनी शोभा,
वैसे ही मेरे भी घर में
मातम छाया होगा.
क्रीड़ा शैल के सुभग शिखर पर
बैठ तरुण गज-से तुम सुन्दर,
दृष्टि फेंकना जुगनू जैसी
मेरे घर के अन्दर.
बहुतेरी सखियों के बीच
जो दिखता हो अकेले,
जैसे सहचर के अभाव में
चकई भी कम बोले.
तन्वी, उसके होंठ रसीले,
जैसे पके विम्ब के फल,
चौंक गयी हिरनी-सी आँखें
याद में छटपट वो बेकल.
झुकी हुयी स्तन के भार से
गहरी उसकी नाभि,
सबसे पतली कमर हो जिसकी
होगी तेरी भाभी!
गरम-गरम साँसों से पड़ गए
फीके होंठ निराले उसके,
रोकर सूज गयी आँखों के
कोर भी पड़ गए काले उसके.
रूखे बाल लटक कर मुख को
छुपा कर रख देते हैं किंचित,
जैसे फिर-फिर छुपा चाँद को
तुम करते ज्योति से वंचित.
रख कर गाल हथेली पर वो
पूछ रही होगी मैना से ,
"उनकी याद में झरते हैं क्या
तेरे भी आँसू नैना से?"
या फिर ले नैवेद्य हाथ में
सजा देव-देवियों की थाली,
आँक विरह से खिन्न मेरा तन
दैन्य कल्पना में वो व्याली.
मलिन वसन ले गोद में वीणा,
गीत मेरे वो गाती होगी,
आँसू से भींगे तारों को
कसती और दुलराती होगी.
भूल स्वरों का समीकरण वो
भजन से गीत मिलाती होगी,
'भैरव' का आरोह लिए वो
राग 'सोहनी' गाती होगी.
या देहरी पर बैठ, फूल से
विरह की अवधि के दिन गिनती,
बीते दिन के सुख-सपनों से
टुकड़े वो आमोद के चुनती.
दिन तो बीत ही जाता होगा
इधर-उधर की बातों में,
किन्तु नहीं सह पाती होगी
पीर बढ़े जब रातों में.
मीत मेरे ओ मेघ! ज़रा तुम
बैठ झरोखे पर ये कहना,
"संदेशा मैं लाया तेरा
दुःख हल्का करने को बहना!"
क्षण की तरह बिता देती थी
सारी रात जो रति रंग में,
वही विरह में सिकुड़-सिमट कर
जाग रही, रातों के संग में.
प्राची से छन वातायन में
पड़ती चाँद की शीतल किरणें,
करती होंगी उसे विभोर
अभी भी जाकर उसके घर में.
ढँक लेती होगी आँखों को
भारी-भारी पलकों से,
सहन नहीं कर पाती होगी
जब ज्वाला-सी किरणों को.
ना ही जाग रही, ना सोती,
निमीलित-नयना मेरी प्रिया,
जैसे बदली छाये दिन ने
कमलों का है हाल किया.
सपनों में मिलने की आस में
सोना चाह रही होगी,
आँसू के अविरल प्रवाह से
रह-रह जाग रही होगी.
याद है उसने बाँध लिया था
चोटी बालों की इकहरी,
जिसे संवारूँगा मैं जा कर
श्राप-अवधि जब होगी पूरी.
बिन आभूषण, अतिशय दुर्बल,
तन में अब क्या जीवन होगा,
मित्र, तेरा ये भावुक मन भी
करुणा से भर कर रो देगा.
बिन मदिरा के सुप्त भृकुटी
ने सारी चंचलता खोई,
स्पंदन वो तेरा पाकर
शायद जागे खोई-खोई I
तेरे आने की आहट से
फड़केगा बायाँ दृग उसका,
जैसे मछली की हलचल से
पानी में है कमल थिरकता.
यदि लगे वो निद्रासुख में
लीन है मेरी प्यारी,
विमुख न कर, प्रतीक्षा करना,
आएगी तेरी बारी!
सपने में मुझसे मिल मुझको
आलिंगन में भर के,
कहती होगी, हे प्रियतम!
मुझे मिलन के सुख से भर दे!
ऐसे में उसके तन पर
पड़ने देना शीतल फुहार,
स्वयं ही खुल जाएँगी पलकें
लगेगी जब ठंढी बयार.
देख, कौंध जाए न बिजली
आवेशित हो तेरा ह्रदय,
मृदु-मधुर गर्जन कर कहना
"देवी, मत करना तुम भय!"
"मैं हूँ मेघ, देता पथिकों को
मंद-मधुर सी शीतलता,
ह्रदय में रख, संभाल के लाया
संदेशा तेरे पति का!"
सत्कार किया था पवन-पुत्र का
ज्यूँ सीता ने होकर उन्मुख,
वैसे ही सुनकर संदेशा
ताकेगी वो तेरा भी मुख.
जैसे ओस की बूँदों पर
हर्ष से खिल उठती हैं किरणें,
वैसे ही उसके मुख से
फूटेंगे आलोक के झरने.
सुनना कुशल-क्षेम अपनों का
किसी सखा के मुख से,
तनिक ही कम होता ये
साक्षात् मिलन के सुख से.
लाल किसलय वाले अशोक के
पेड़ों पर से झुककर,
मौलसिरी की छाया में आ
कहना थोडा रूककर;
"सकुशल है तेरा सहचर
रामगिरी के जंगल में,
विरह विपत्ति में पलता
उसका मन तेरे मंगल में!"
"मिलने की आकुलता किसमें
अधिक है, किसमें कम है,
क्षमा करो ऐ देवी!
पर ये निर्णय बड़ा विषम है."
"आहट सुनता तेरे दुःख की
चाहे जितना हो थका हुआ ,
निरुपाय पड़ा, वो दूर बहुत,
विधि के चक्रों में फँसा हुआ I "
"खोज रहा वो रूप तुम्हारा
लता में, कोमल गुल्मों में,
चाँद के उगते दर्पण पर,
चकित हिरन के नयनों में I "
"मोर के पंखों में दिखते हैं
उसको तेरे केश-कलाप,
सरिता की लहरों में दिखता
तेरे ही चितवन की छाप I "
"रुष्ट न होना, लेकिन मुझको
इतना तो कहना होगा,
तेरे रूप के धन से इनका
क्या कोई तुलना होगा?"
"प्रणय में रूठी छवि तेरी
आँक सलेटी पत्थर पर,
तुझे मनाने हेतु दिखाता
स्वयं को गिरता पैरों पर I "
"उमड़ आये इतने में आँसू
लुप्त हो दृष्टि की क्षमता ,
किसी प्रकार तुमसे मिलना
विधि को सहन नहीं होता I "
बहुत दिनों के बाद कदाचित
यदि सपनों में मिल जाऊँ,
गाढ़ा आलिंगन भरने को
शून्य में बाहें फैलाऊँ I
दैन्य मेरी इस हालत पर
देव-देवियाँ भी रोते हैं,
मोती-से अश्रु आँखों के
पत्तों पर टपका देते हैं I
देवदार का सौरभ लेकर,
और तुम्हारे तन को छूकर,
उत्तर से जब आये हवा
वक्ष से अपने उन्हें लगा;
यही मनाया करता हरदम,
काश, रात हो जाती छोटी,
और तनिक जो दिन तपता कम
सहने योग्य व्यथा तो होती!
लेकिन सुनाता कौन यहाँ है
विरह में जलते जातक की,
व्यर्थ ही जाती है प्रार्थना
शरणहीन एक याचक की I
फिर भी गणित समझ कर विधि का
समझाता अपने मन को,
किसको सुख ये मिला है अविरल,
दुःख अविरल भी मिला है किसको?
काल की गति के पहिए जैसे
नीचे-ऊपर आते-जाते,
सुख-दुःख तो अपने जीवन में
बरसों के हैं पलते नाते I
चार महीने बाद, विष्णु उठ
शय्या जब छोड़ेंगे,
श्राप-अवधि के दिन मेरे भी
तब ही पूरे होंगे I
फिर तो शरत के चाँदों वाली
रातों में तुमसे मिलकर,
विरह-काल के दुःख की बातें
बाँटेंगे हम मिलजुल कर I
कहना, कि मैं कुशल हूँ वन में
हे घने नयनों वाली!
विश्वास अटल रखना मुझपर
मैं आऊँगा निश्चित आली!
व्यर्थ ही कहते हैं कि जग में
प्रेम विरह में मर जाता,
मुझे तो लगता है अभाव में
दिन-दूना ये बढ़ जाता I
प्रबल शोक में डूबे मन को
देकर तुम आश्वासन,
लौट यहीं फिर आना, बन
उसके सन्देश का वाहन I
बन्धु मेरे, ये काम मेरा
क्या पूरा कर पाओगे?
पता है, तुम सद्जन, याचक की
माँग न ठुकराओगे I
ग्रीष्म-विकल तुमसे पाते हैं
शीतलता हर प्राणी,
नहीं माँगने पर भी देते
चातक को तुम पानी I
योग्य तुम्हारे काम नहीं ये
फिर भी तुम्हें बतलाया,
क्षमा करो, विरही मन को
अपराध समझ ना आया I
अपनी प्रेयसी से क्षण भर भी
हो ना विछोह तुम्हारा,
तेरे जल से मिले जगत को
अमृत की चिर धारा I
कभी न हो ऐसा कि तू
झंझा बनकर मंडराए,
जल से भरे दयालु मन का
जल न सूखने पाए I
रामगिरि से झट अलका तक
मेघ पहुँच कर आया,
और यक्ष की प्रियतमा को
उसका सन्देश सुनाया I
सुनकर करुण कथा यक्ष की
द्रवित कुबेर का मन भर आया,
आजीवन सुख का वर देकर
यक्ष-यक्षिणी को घर लाया I