इतिहास गवाह है कि रक्तपात और युद्ध से
कभी किसीको आत्मशान्ति नहीं मिली ।
युद्ध युद्ध को जन्म देता है
हिंसा हिंसा को ।
आखिर कलिंग विजय ने
अशोक को आत्मग्लानि ही दी थी
और उसे बोधिसत्व की शरण में जाना पड़ा था ।
आत्मशान्ति की प्यास केवल और केवल
प्रेम की नदी ही बुझा सकती है
उसकी सरस तरलता ही
क्रूरता और निर्दयता को भी
गलाकर उसमें करुणा का स्रोत बहा सकती है ।
ओ रक्त को रस की तरह पीने वाले हत्यारों
यही रस तुम्हारे लिए ज़हर बनेगा
और तुम्हारी ज़िन्दगी को
मौत से भी बदतर बना देगा ।
तुम तड़पोगे शान्ति के शीतल पानी की
कुछ बूंदें पाने के लिए
लेकिन एक बूंद भी
तुम्हें मिल नहीं पायेगी ।
फिर तुम चाहोगे
देखना फूलों का खिलखिलाना
नदी की कलकल का संगीत सुनना
चिड़ियों का चहचहाना
बच्चों का तुम्हारे आँगन में किलकारी भरना
और पड़ौसियों का प्रेम से गले मिलना
पर कभी नहीं कभी नहीं यह सब तुम्हें मिलेगा ।
तुम्हारी आँखों में छा जायेगा विषैला धुआं
और डरने लगोगे खुद से
तुम्हारी माँ भी तुम्हें फूटी नजरों से भी नहीं देखेगी
वह भी तुम्हें कातिल कहकर दुत्कारेगी ।
तुम्हारे मित्र ही बन जायेंगे तुम्हारे दुश्मन
और गला घोंट देंगे वे ही तुम्हारा ।
फिर जिस रक्त की नदी को तुमने बहाया है
वही तुम्हें डुबाकर रसातल पहुंचा देगी
और उसकी लहरें उछल-उछल ठट्ठा मारते हुए तुम्हारी हँसी उड़ायेगी !
ओ क्रूर हत्यारों !
ओ क्रूर हत्यारों ! !