रेत की तरह, हथेली से फिसल जाता है
वक्त
इंसान गिनता रहता है, अपनी
उम्र की सिमाओं को, बुझते जाते हैं,
आशाओं के जुगनू,
वक्त की रफ्तार से,
भठकता है, इंसान
एक अधूरे सच की तलाश में,
झड़ जाते हैं, पत्ते,फल, और फूल.
वक्त की रफ्तार से,
मरती है, इंसनीयत खोने और पाने के बीच।
हम लेते हैं, सहारा सपनों का,
जीने की जद्दोजहद में,
खोई पहचान पाने के लिए।
मरूभूमि में मृग-तृष्णा सी,
लौटता नहीं है, वक्त,
जो फिसल जाता है, हथेली से रेत की तरह।।