लेकर बैठ जाता हूँ मैं
वर्षों के महाकाव्य
गुजरता हूँ , पंक्ति दर पंक्ति
ठहरता हूँ , हर विराम पर
देख भी लेता हूँ
आगे बढते - बढते , हर बार
पीछे मुडकर
वहीं , उसी मोड पर , आकर
ठहर जाता हूँ , सोचता हूँ कि -
कविता क्या है ?
गूंजते है , उदात्त व्याकरण की गृहस्थी के
सभी उच्चकुल सम्पन्न नायक
कि कविता -
घरेलू हिंसा के खिलाफ
शब्दों का सत्याग्रह है ,
जलती हुई मोमबत्ती की
पिघलती हुई आह ! है ,
रास्तों में , सडक पर
भीड का , बाजूओं पर
काले धागे में बदल जाना
चल पडना प्रगति मैदान में
किसी - न - किसी छाया के नीचे
हाथों में लिए , तख्तियों पर
कुछ अहिंसा के गिने चुने ; संवैधानिक शब्द लिए
कि नागरिकों को अधिकार है
वो निर्धारित कर सकें
अपनी जुबान से निकलने वाली ध्वनियों के
स्पर्श स्थान , मुँह के भीतर ,
अब जब आक्रोश का दूसरा नाम
भूख हडताल है ,
निकल पडना घर से गंगा-घाट पर
देश भक्ति की पहचान ,
मुझे उचित लगता है , उस समय , कहना
उस बंदूक धारी का
कि कविता और कुछ नहीं
युद्ध है , अपनी पहचान का ,
उससे , आंखें न मिला पाने की , विवशता
धरोहर से अलग कर देने
की चालाकी ,
उसे नक्सली बता देती है ,
और विधान के इस प्रपंच में
एक आवाज को असंवैधानिक ,ठहरा
देती है ।