सर अपना पत्थर पे

सर अपना पत्थर पे मार रहा हूँ
रोज़ खुद को ही सुधार रहा हूँ ।
वक्त माँग रहा हरपल सांसे मेरी
कर्ज ज़िंदगी की मैं उतार रहा हूँ ।
पढ़ लेता है हर कोई चेह्रे से मुझे
सबके के लिए मैं अखबार रहा हूँ ।
अजीबोगरीब है शख्सियत मेरी
औरों को फूल ,खुद खार रहा हूँ ।
मसअले मुझपे मेहरबाँ रहे हमेशा
अजय मैं उनका शुक्रगुजार रहा हूँ ।

 


तारीख: 11.03.2024                                    अजय प्रसाद









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