आठ प्रहर ख़ुद को मैं खोदूँ,
बंजर प्राणों को नित नित जोतूं
रातों रोऊं, स्वयं को बोऊं, पल पल खोऊँ, जागूं न सोऊं
फिरता सहरा में बन कस्तुरीमृग
पार न दिखता, भटकूं डग डग
कब तक झेलूं ये स्वद्वंद्व क्रीड़ा....
हुई आज है बांझ कलम, मचले शब्द प्रसव पीङा....
झंझावात र्निनिमेष ताकते, गर्भगृह संज्ञा से बिछङा
अस्तांचल काल विचरता, निर्मेध लालिमा से कैसा झगङा
झंकार कहीं पर लोप हो रही;
राग भैरवी ताल खो रही......
विचार सूखे, अन्तर्मन सूखा, गंगा सूखा ओढ़ सो रही
कब तक झेलूं ये स्वद्वंद्व क्रीड़ा....
हुई आज है बांझ कलम, मचले शब्द प्रसव पीङा....
रही बोल दुपहरी, ग्रहण की भाषा
रहे बरसत बदरा पर चातक प्यासा
चहुंओर जलनिधी पर मेधा प्यासी मोरी;
ज्यूँ अनाद्य परिधी लिए शहद कटोरी......
बिना तेल दीपों का रेला; निनाद बीच, शब्दभेद अकेला
कब तक झेलूं ये स्वद्वंद्व क्रीड़ा....
हुई आज है बांझ कलम, मचले शब्द प्रसव पीङा....
बहुत हो चुकी स्वद्वंद्व क्रीड़ा....
अब बहुत हो चुकी स्वद्वंद्व क्रीड़ा....
युद्ध है गहरा, तोङ के पहरा; हो सज्ज मूझे आना होगा
हुई बहुत अमावस, जगा के साहस;
अब वृंदगान गाना होगा......
अब वृंदगान गाना होगा......