तो शायद

छत पे उस रोज आये नहीं ठिठुरती रही आस
आज पूछते हैं मुझी से मेरी बदहाली का राज
अरे ये तू थी जो मैं हो गया बदहवास
मेरी उम्मीद तू इक पल और साँसे जी लेती
तो शायद
 
तो शायद
मैं यहाँ ना होता
यूँ बेवक्त कभी ना रोता
ना करता ग़ज़लों पे यूँ पन्ने बरबाद
मेरी उम्मीद तू इक पल और साँसे जी लेती
तो शायद
 
तो शायद
ये फिजाएं यूँ नम ना होतीं

बहती हवा यूँ सर्द ना होती
ना होता ये इश्क़ पे हिज़ाब
मेरी उम्मीद तू इक पल और साँसे जी लेती
तो शायद
 
तो शायद
इन आँखों में पानी ना होता
ज़लवों का कोई सानी ना होता
ना गूंजती वफ़ा की फ़रियाद
मेरी उम्मीद तू इक पल और साँसे जी लेती
तो शायद
 
तो शायद
तुझे उँगलियों से छूना चाहता
दो रात तेरे आँचल में सोना चाहता
चाहता सिर्फ मुख़्तसर सा साथ
मेरी उम्मीद तू इक पल और साँसे जी लेती
तो शायद


तारीख: 20.06.2017                                                        आयुष राय






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