उलझन

उलझन में पड़ी है आज तबियत
प्यास क्यूँ अब भी तेरी है
खफा भी होलूं तुझसे मै फकत
ये रुसवाइयां
ये दिलनवाजी
ये पेशकदमी
ये सारी अदायगी भी तेरी है..

रुक रुक कर उठती है एक महक
खुशबुओं में बयानगी तेरी है
दूर कर कैसे दे वक़्त मुझे
ये पहर
ये लम्हे
ये पलछिन
ये सब पलको से बंधी तेरी है।

आओ वापस
टूट गया है मन ये
ये सहर आस में तेरी है
इस स्याह रजनी की धरा पर
खुद में उलझी, जैसे लिपटी
परछाइयाँ हैं..

हाँ.. तेरी मेरी है।।


तारीख: 15.06.2017                                    अंकित मिश्रा




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है


नीचे पढ़िए इस केटेगरी की और रचनायें