अनसुलझे जवाब

बङा उदास हूं आज
मथ रहा हूँ, कुछ अनसुलझे जवाब
कि ये आफ़ताब
जो जलता है, सुबह से शाम
खूश है जलकर
या
अग्न है ये, किसी के विरह की.....
कि ये चंद्रमा
जो ठंडक देता है, सारी रात
शीतल है अंदर से
या
ठंडा हो गया है, उम्मीद खोकर.....
कि ये पवन
इसका दिनभर चलना
मदमस्त चंचलता है इसकी 
या
बेसुध हो, तलाश रही है किसीको.....
कि ये जल
जो ढल जाता है, हर आकार में
इतना ही सरल है ये
या
खो चूका है प्रतिकार की क्षमता.....
कि ये वक्त
जो याद दिलाता है, अपनों का साथ
मेरे अतीत का सुनहरा आंगन है ये
या
मेरे भविष्य की अकेली ऊंचाइयां.....
कि मैं
जो दिखता हूं, मजबूत ऊपर से
सच में कुछ पा लिया है मैंने 
या
ये अकङ है, देह से आत्मा की विरक्ति की.....
सच में बहुत उदास हूं मैं.......
मथते हुएे, कुछ अनसुलझे जवाब......
 


तारीख: 30.06.2017                                                        उत्तम दिनोदिया






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