वह मेरा चाँद सौ टुकड़ों में टूटा

वह मेरा चाँद सौ टुकड़ों में टूटा,
जिसे मैं देखती थी, आँख भर कर।
जहाँ पे लाल हो जाते हैं आँसू,
मैं लौटी हूँ उसी हद से गुज़र कर।

मेरे हो तुम, ये कोई नहीं कहेगा,
तसल्ली अपनी अपने पास रखो।
ये मेरा इश्क़ है, मेरे पास रहने दो,
ये कैसा राब्ता था मेरा, तुम्हें खोने से डरती थी।

ज़हर बरसा क्या नींदों पे मेरी?
या आँखों में नश्तर गड़े हैं?
कोई तो समझाए मुझे,
वजह क्या, ख़्वाब मेरे नीले पड़े हैं?

अपने एहसासों को शब्दों में पिरोने के लिए,
जो मैंने समेट रखे हैं, अपने मन में...
और मेरी यही समर्पण तुम्हारे लिए...
ख़ुद के हिस्से का दर्द-ए-ग़म लिखूँ!
वो रोती हुई रातें, कुछ ख़्वाब अधूरे,
कुछ शोर अपना, कुछ ख़ामोशी तेरी।


तारीख: 31.05.2025                                    रीमा




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