वक़्त इक नदी है

वक़्त इक नदी है,
सतत बहती है..
बहती रहेगी।
थमेगी नही..
भिगोती रहेगी..
करुण क्रंदन से..
डुबोती रहेगी..
प्रफुल्लित आनन से..
इस धरा को..
वक़्त इक नदी है,
रुकेगी नही..
निरंतर चलती रहेगी..
वेग से..
कभी धीमी पड़ जायेगी..
समतल पर..
मंद-मंद मुस्कुरायेगी..
पवन से मिलकर..
कभी ठहाके लगायेगी..
अश्रु नही..
जीवन धारा बहायेगी..
सृजन करेगी..
मानवता का..
अनेकों का..
उद्धार करेगी..
जीवन का..
संचार करेगी..
प्राण फुकेगी..
शिथिल पड़े..
जीवन में..
टकराएगी..
कठोर चट्टानों से..
तोड़ देगी..
फोड़ देगी..
उस पाषाड़ हृदय को..
चकनाचूर करेगी..
अभिमानी के..
घमंड को..
फिर मिला लेगी..
उसे स्वयं में..
जननी सी..
बड़प्पन दिखायेगी..
बहती है..
बहती ही जायेगी..
वक़्त इक नदी है,
कभी ढाल पर..
तीव्र गति से..
दौड़ेगी..
और झरनों सी..
गिर जायेगी..
मुक्त सी..
बंधनरहित...
छूट जायेगी..
धरा से..
कुछ दूर तक..
कुछ पल के लिये..
पुनः उससे मिलने के लिये..
फिर चलेगी..
चलती जायेगी..
ठंडी पड़ जायेगी..
शोकाकूल हो..
कभी जम जायेगी..
फिर भी..
रुकेगी नही
पिघलती रहेगी..
और पिघल जायेगी..
ऋतु आयेगी..
ऋतु जायेगी..
ये चलती है..
चलती ही जायेगी..
अनगिनत..
बारिश की बूंदों को..
समाहित करेगी..
समावेश कर..
स्वयं सी..
सजायेगी..
सवारेगी..
सागर से..
मिलनें के लिये..
त्वरित हो जायेगी..
गायेगी..
गुनगुनायेगी..
मन में..
तरंग लिए..
उठेगी..
अंत में मिल जायेगी..
पिया से..
शांत हो जायेगी..
विलीन होकर..
रत्नाकर में..
पुनः लहरायेगी..
प्रेम के गीत गायेगी..
साथ मिलकर..
हिलोरे लेगी..
सूरज की गर्मी से..
रूपांतरित होगी..
छोड़ेगी साथ..
प्रियतम का..
विरह वेदना में..
तड़पेगी..
छोड़ जायेगी..
प्रियवर को वहीं..
स्थिर...धरा पर..
स्वयं विचरण करने..
फिर से..
घूमेगी..
इस चक्र में..
वाष्प बन..
बादल बन जायेगी..
बरस जायेगी..
बूँद बनकर..
फिर मिल जायेगी..
किसी नदी से..
और बहती चली जायेगी...
वक़्त इक नदी है,
रुकेगी नही..
अनवरत चलती रहेगी।


तारीख: 05.02.2024                                    जूली जायसवाल ज़न्नत









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है