तुम्हारे शब्दों के पदचाप
कभी-कभी कानों में दर्द पैदा करते हैं,
जैसे कोई बरसाती कीड़ा,
कानों में भरतनाट्यम के धुन पर,
थिरक रहा हो।
तुम अपने स्वार्थ में मरोड़ देते हो,
असंख्य उन जुगनुओं को,करके वशीभूत,
शब्दों के सहारे।
मैं ठिठक जाता हूँ,गिर पड़ता हूँ,
व्यथित मन-से,चिंता की अतल गहराईयों में,
यह सोचने पर विवश होता हूँ कि,
शब्दों के भी पैर होते हैं क्या?