कुछ ख़्वाब

कुछ ख़्वाब जो आँखो में समाए नहीं
कुछ सपने जो सबको भाए नहीं

कुछ उम्मीदें जो आँसुओ संग बह गयीं
कुछ लोग जो लाख बुलाने पे भी आए नहीं

माना के सब बाग़ खीजाँ में उजड़ गया
मगर कुछ तो गुल होंगे जो मुरझाए नहीं

माना के भारी लाशें हैं मुर्दा ख़्वाबों की
मगर तूने भी तो सब हथियार आज़माए नहीं

फेंक दे इनको अगर तुझपे बोझ हैं ये
वो सपने ही क्या जो तुझे उठाए नहीं


तारीख: 15.10.2017                                    राहुल तिवारी




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