रग-रग के लहू

रग-रग के लहू से लिक्खी है, हम अपनी कहानी क्यों बेचें।
हर लफ़्ज़ अमानत है उनकी, वो अहद-ए-जवानी क्यों
बेचें।।

ये गीत ही तो बस अपने हैं, हमको जो किसी ने बक्से हैं।
तुम दाम लगाने आए हो, हम उनकी निशानी क्यों बेचें।।

फ़नकार को जो कुछ देकर खुद, नोटों से तिजोरी भरते हैं।
हम ऐसे दलालों के हाथों, वो याद पुरानी क्यों बेचें।।

लफ़्ज़ो में पिरोयी हैं यादें, जो जान से हमको प्यारी हैं।
क़ीमत ही नहीं जिनकी कोई, घड़ियां वो सुहानी क्यों बेचें।।

शोहरत के लिए बिकने से तो, गुमनाम निज़ाम अच्छा यारों।
बेबाक क़लम है अपनी ये, हम इसकी रवानी क्यों बेचें।।


तारीख: 13.03.2024                                    निज़ाम- फतेहपुरी









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