रात की रात से बात होती रही
दिन शामियाने में बदन धोता रहा
हो गया मुल्क सारा ख़ूनम-खून
और सब नियम-कानून सोता रहा
दूजे की पोशक में जिस्म लपेट के
सरे-शाम अपना वजूद खोता रहा
बच्चे भूखे से बिलबिलाकर मरते रहे
और धर्म पर विचार-विमर्श होता रहा
आज़ादी हर साल आती है,पर कौन आज़ाद है
यही सोच मेरा वतन दिन-रात रोता रहा