संग्राम


प्रत्येक दिन शाम के समय में गाँव के कुछ लड़के गाँव के बिलकुल मध्य में अवस्थित उस विशाल वट वृक्ष के नीचे घँटों बैठ कर आपस में बतियाते थे. वैसा करना इन लड़कों के दैनिक दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा था. इन लड़कों में एक मैं भी था और मेरा परम मित्र दीपक भी. प्रतिदिन शाम में उक्त वट वृक्ष के नीचे नियत समय पर पहुँचना हम सब के स्वभाव में मानो रच-बस गये थे. अभी मैं नियत समय पर वहाँ पहुँचा तो देखता हूँ कि वहाँ पहले से कई लड़के मौजूद हैं. किंतु उनमें कोई मेरा परम मित्र दीपक नहीं थे.


तथापि मैं भी लड़कों के उस झुंड में शामिल हो गया और गप-शप करने लगा. परंतु दीपक की अनुपस्थिति मुझे खल रही थी और बारंबार मेरा ध्यान उसके अनुपस्थिति पर चला जाता. दीपक की अनुपस्थिति में मेरा मन वहाँ नहीं लग रहा था. प्रतीत होता था कि मेरे सुर-ताल में किसी चीज की कमी रह गई है. करीब घँटे भर अंदर ही अंदर इंतजार करने के पश्चात मुझे अजीब सी बेचैनी होने लगी. वैसा आज तक नहीं हुआ कि वह कभी यहाँ अनुपस्थित रहा हो! फिर आज क्या हो गया उसे और किस कारणवश अबतक वह यहाँ नहीं पहुँच सका?


अभी मैं इस संबंध में सोच ही रहा था कि वहाँ दीपक आ पहुँचा. उसका चेहरा बुझा-बुझा सा था और रंगत धुला-धुलाया सा बिलकुल सफेद. उसके हाव-भाव से धुलाई की गहरी सफेदी तो तार-तार होकर दिख ही रही थी, किंतु रंगत से चमक भी गायब थी. वह हताशा में मेरे समीप पहुँचा तो मैंने उसका बाजू पकड़ लिया और उसे वट वृक्ष की छाँह तले ला कर बैठाया. फिर हताशा का कारण पूछा, किंतु वह चुप रहा. बारंबार पूछने पर उसने अपनी चुप्पी तोड़ी और दबी जबान से जो कुछ बताया, उससे पूरा माजरा मेरे समझ में तो नहीं आया किंतु इतना जरूर समझ गया कि उसकी बुरे तरीके से धुलाई हुई है. 


पूरा माजरा समझने के लिये मैंने उससे दुबारा पूछा,"श्रीराम चरित मानस के किसी चौपाई पर शास्त्रार्थ का आयोजन और मानस प्रेमियों की धोबीपाट वाली धुलाई! माजरा कुछ समझ में नहीं आया, खुलकर और थोड़ा विस्तार में बताइयो."


तब दीपक झिझकते हुये बताया,"आज के शास्त्रार्थ आयोजन में बहुत से सुप्रसिद्ध ग्रंथज्ञानी विद्वान पधारे थे. शास्त्रार्थ हेतु विषय-वस्तु था "ढ़ोल, गंवार, पशु, शुद्र, नारी..." से संबंधित चौपाई के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने की चुनौती. शास्त्रार्थ स्थल पर विद्वानों के बैठने हेतु समुचित प्रबंध थे. मंच पर एक तरफ उपरोक्त सम्मानीय चौपाई के समर्थन में ग्रंथज्ञानी विद्वानों के बैठने की जगह निर्धारित थी जो समयानुसार सुप्रसिद्ध विद्वानों की उपस्थिति से पूर्णतः भर गया. दूसरी तरफ उक्त चौपाई से विरोध रखने वाले खेमा के बैठने की जगह मुक्कमल रखी गई थी जो काफी इंतजार के पश्चात भी बिलकुल मानुस रहित ही रहा."


वैसा कहते हुये दीपक कुछ क्षण ठहरा. फिर जैसे श्वान अपना नथुना हवा के रुख की तरफ रखते हुये सूँघ कर संभावित खतरा भांपने की कोशिश करता है, ठीक वैसे भाव-भंगिमा ही में दीपक साँस अंदर खींचा और पुनः बताने लगा,"काफी इंतजार के पश्चात भी अंततः विरोधी खेमा रहित रह गए मंचासीन ग्रंथज्ञानी विद्वान से ही उनके मौलिक विचार रखने का आग्रह किया गया. तब सदैव सौम्य, मधुर, तर्क-संगत और सर्व-मंगल की कामना से ओत-प्रोत विचार-व्यवहार के लिये अभिज्ञात और सद्भावना के मान्य प्रणेता ग्रंथज्ञानी विद्वानों में से एक अति सुप्रसिद्ध विद्वान् उपरोक्त चौपाई के विरोध करने वालों को चुनौती पेश करते हुये अपने विचार वक्तव्य का प्रारंभ अग्रोक्त वाक्य से किये.


"अनपढ़, जाहिल, समाज-द्रोही दलित चिंतकों और वाम पंथियों को चुनौती, चुनौती और खुली चुनौती कि वे उपरोक्त चौपाई का भ्रष्ट, कुंठित और साजिशन उपभोग करना बंद करें. वह जो साजिश करते हैं कि सत्ता सुख प्राप्ति हेतु येन-केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज रहें और हिन्दू समाज को पथ-भ्रष्ट कहते-करते रहें, उसे हरगिज कामयाब नहीं होने देंगे." ग्रंथज्ञानी महानुभाव के उपरोक्त वाक्य की पूर्णता पर शीघ्रता से मंच के सामने श्रोता के बैठने हेतु निर्धारित निम्न स्थल से बड़ी संख्या में विराजमान सुमान्य दलित चिंतक और माननीय वामपंथी प्रतिनिधि जो दलित सम्मान के बारहमासिक कविताएँ प्रतिदिन गाते फिरते हैं बढ़-चढ़कर सामूहिक करतल ध्वनि किये.


करतल ध्वनि से उत्साहित महानुभाव अपने विचार पूरे जोश में व्यक्त करते रहे और दलित चिंतकों एवं वामपंथियों के करतल ध्वनि से प्रोत्साहन पाते रहे. सुमान्य दलित चिंतक और माननीय वामपंथी भी ग्रंथज्ञानी मान्यवर का निरंतर प्रोत्साहन और आपस में कानाफूसी करते रहे. पता नहीं, दोनों पक्ष में कौन सा पक्ष सत्ता अथवा राजसी सुख के लिये ललायित थे? किंतु उक्त महानुभाव ने अपने लंबे-चौड़े व्याख्यान का अंततः सफलता पूर्वक समापन किया. व्याख्यान के समापनोपरांत भी करतल की गड़गड़ाहट हुई. किंतु एक सीधी-सादी महिला को पता नहीं क्या सूझा कि उसने स्त्री के साथ सदियों के भेद-भाव और आदि काल से उसके दयनीय स्थिति के मुद्दा पर कुछ पूछ लिया.


अब महानुभाव की त्यौरियाँ चढ़ गई. महिला को लगभग डाँटते हुये उन्होंने कहा,"विदुषी भारती जी, आपके प्रश्न हल करने में तो आदि शंकराचार्य जी भी अयोग्य साबित हुये. इसलिये आपको किसी मंडन मिश्र का सहचर्य ढूँढना चाहिये." महिला चुप बैठ गई, क्योंकि उसे प्रोत्साहित करने वाला वहाँ कोई नहीं था. वहाँ केवल पुरुष-प्रधान सवर्ण या दलित अथवा पंथी मात्र थे. वहाँ मौजूद जो अन्य महिला थीं, वह भी स्त्री अस्मिता समर्थक नहीं अपितु किसी वर्ण अथवा पंथ समर्थक ही थीं. किंतु उस महिला के प्रतिरोध ने औरों में साहस भर दिये.


तब एक दुःसाहसी युवक साहस कर बोला,"श्री मानस की रचना अवधी में हुई, इसलिये यहाँ ताड़ना शब्द संस्कृत में नहीं, अपितु अवधी में है..."युवक अपनी बात पूरा-पूरा कहता कि इससे पूर्व ही मंचासीन अन्य विद्वान् क्रोध करते हुये और अपने मुख से अपशब्द उच्चारते हुये अपनी-अपनी पगड़ी युवक पर उछालने लगे. उधर दलित चिंतकों और वामपंथियों को वह युवक उनके वोट बैंक का सेंधमार मात्र नजर आने लगा. इसलिये वह सब भी युवक का पुरजोड़ विरोध करने लगे. अब युवक की हालात संयुक्त राष्ट्र और मित्र राष्ट्र के संदेह के दो पाट के बीच पिसते और स्वेच्छा से पंचशील सिद्धांत का अनुपालन करती भारतवर्ष जैसी हो गई.


इधर शास्त्रार्थ आयोजक मंडली के पसीना छूटने लगा कि वर्णवाद अखाड़ा रचने के षड्यंत्र का ठीकरा उसके सिर न फूट जाय. बढ़ते कोलाहल रोकने के उपाय ढूँढने निमित्त वह सब मंतव्य करने लगे. किंतु मंडली के युवा सदस्यों को कुछ भी युक्ति नहीं सूझी. तब मंडली के अत्यंत वृद्ध किसी सदस्य ने एक युक्ति बताई. किंतु उस युक्ति के कार्यान्वयन में वह स्वयं अपनी शारीरिक अक्षमता की वजह से असमर्थ थे और अन्य सदस्य उस युक्ति के कार्यान्वयन का साहस नहीं कर पाये. तभी उनकी नजर मुझ पर पड़ी और अंततः मेरे लड़कपन का उन्होंने अनुचित लाभ लिया." दीपक रुआंसा होकर बोला.


मैंने पीठ पर थपकी देकर अपने परम मित्र दीपक का ढाढ़स बंधाया, तब उसने पुनः कुछ गंभीर रहस्योद्घाटन किये. उस रहस्योद्घाटन से अवगत होने के पश्चात तो मेरा दिमाग भी सचमुच चकरा गया. उसने बताया,"उन्होंने पुण्य-लाभ का प्रलोभन, आस-भरोसा और भय-भेद दिखाकर उस युक्ति के कार्यान्वयन हेतु मुझे तैयार कर लिया. जब मैं उस युक्ति पर अमल कर रहा था, तब कार्यान्वयन के मध्य में दलित चिंतकों और वामपंथियों ने मुझे टोका भी कि यह बच्चों का कुछ खेल नहीं. उन्हें मैं उनके उस अचूक धरा-धराया मुद्दा का एक समूल नाशकर्ता नजर आया, जिस मुद्दा पर उनकी राजनैतिक रोटी सदैव सिकती हैं और भविष्य में भी सिंकनी है. उन्हें मैं उनका वोट बैंक हथियाने का एक साजिशकर्ता भी मालूम हुआ, जिसे सत्ता सुख पाने की असीम लालसा थी.


उधर ग्रंथ ज्ञानी विद्वान् भी मुझे साजिशकर्ता मात्र ही समझ बैठे, जिसकी वक्र दृष्टि उनके अल्प जोखिम से प्राप्य गहरे राजसी सुख-भोग में बाधा पहुँचाना अथवा सेंधमारी करना था. अब शीघ्र ही दोनों पक्ष यह सुनिश्चित कर लिये कि मैं एक सामान्य बालक नहीं अपितु एक साजिशकर्ता हूँ. तब शीघ्र ही वहाँ वह दृश्य उपस्थित हुआ जिससे प्रतीत हुआ कि वहाँ शास्त्रार्थ हेतु अभी विद्वान और तथ्य प्रिय सज्जन एकत्रित नहीं हुये थे, अपितु अभी वहाँ संग्राम और तबाही प्रिय कुछ लोग मात्र उपस्थित थे. वहाँ लोगों की वह नजरिया ही बदल गई कि एक बालक बाल गोविंद-स्वरूप होते हैं. उनके मन में कुछ भी कपट नहीं होता अथवा उन्हें कुछ भी अनुचित लाभ की लालसा नहीं होती."


मैंने उसकी बात काटते हुए पूछा,"वह कैसी युक्ति थी, जिसके कार्यन्वयन में इतनी बड़ी जोखिम थी? जरा मुझे भी तो बताओ."


"ना बाबा, ना! एक बार पढ़ने मात्र पर मेरी यह हालात बना....तुम्हें जानना है तो स्वयं पढ़ लो." उसने अपने कान पकड़ लीये. मैंने बताने हेतु दुबारा आग्रह किया तो उसने अपनी जेब से एक पर्ची निकाल कर चुपचाप मुझे पकड़ा दिया. 


मैं पर्ची देखने लगा. उसमें लिखा था-"अहम प्रश्न यह है कि श्रीराम चरित मानस किस प्रकार आदर्श ग्रंथ हैं? जबकि उसमें कहीं श्रीराम निकृष्ट भीलनी शबरी के बेर सप्रेम स्वीकार कर उसे ग्रहण करते हैं, निषाद राज केवट को गले से लगाते हैं और गिद्धराज जटायु को अपनी बाँहों में भरते हैं. इस प्रकार अनेक लीला के माध्यम से संपूर्ण रूप में सर्वोत्तम समता को बढ़ावा देते है. तभी ग्रंथ अन्य पात्र से 'वर्णाधम जे तेली, कुम्हारा' कहलवाकर जैसे जातिवाद, विषमता और सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा देने लगती है. फिर ढोल, गंवार, पशु, शुद्र, नारी जैसे संवाद कहलवाकर स्त्री शक्ति की अवमानना भी करते प्रतीत होते हैं?


प्रसंगवश और पात्र की चेतना अर्थात उनके आचरण-व्यवहार के अनुरूप उनके मुख से संवाद प्रेषित करवाने की व्यवहारिकता के संबंध में पुनः यह मत उचित प्रतीत होता है कि जहाँ ग्रंथ अपने आदर्श नायक के प्रतिद्वंद्वी के अनेक दुर्वचन को "कहेउ कछुक वचन दुर्वादा' जैसे विवेकपूर्ण शब्द संकेत में इंगित करते हुये अपनी मर्यादा बनाये रखती है, यहाँ विवेक पूर्वक अल्प मात्रा में भी वह मर्यादा प्रकट करने में कैसी चूक? ग्रंथज्ञानी विद्वानों के अनुसार यहाँ शब्द का श्लेषालंकारिक प्रयोग है तब वैसे स्थान पर किसी श्लेष-अलंकारिक शब्द के प्रयोग में कैसी चतुराई, जहाँ दुरुपयोग की प्रबल संभावना हो और वहाँ भविष्य में गंभीर स्थिति अथवा विकट परिस्थिति उत्पन्न हो जाये. पुनः उक्त शब्द का प्रयोग उक्त अर्थ ही में अन्यत्र कहाँ-कहाँ हुये?


यदि उस श्लेष-अलंकारिक शब्द का अर्थ यहाँ प्रयुक्त भोक्ता या कर्म शब्द के बहुमत के संदर्भ में उचित और मान्य है तब ढ़ोल और पशु शब्द से संदर्भित होकर क्या अर्थ निर्धारित हो सकता है इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होता. फिर स्त्री-पुरूषमय संपूर्ण जड़-चेतन सृष्टि ही समरूप से ईश्वरांश हैं, पुनः भगवान बिष्णु भी मोहनी स्वरूप में एक नारी हैं. पुनः सनातन हिंदू धर्म में नारी का स्थान प्रकृति स्वरूप साक्षात् शक्ति और देवी स्वरूप में पूजनीय हैं. पुनः इस ग्रंथ में भी अबला प्रबल तक माने गये, तब साधक को उससे मित्रवत समव्यवहार करने की शिक्षा देने में चूक कैसे हो गई?


पुनः एक पिता के लिये उसकी पुत्री, एक भाई के लिये उसकी बहन, एक पुत्र के लिये उसकी माता और एक धर्मनिष्ठ सनातनी हिन्दू साधक के लिये प्रत्येक महिला माता समान अर्थात प्रत्येक पुरुष हेतु वह सम्बंधित सम्बंध के अनुरूप ही व्यक्त होती हैं, एक नारी मात्र के रूप में कदापि नहीं. इसलिए यहाँ नारी शब्द से तातपर्य पत्नी मात्र से है. फिर उपरोक्त तथ्य के आधार पर उसे कम आँक कर शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी मात्र किस तरह समझा गया? इस तरह ग्रंथ अपने उत्तम लक्ष्य से भटक कर अपने आदर्श नायक के चरित्र-चरितार्थ के विपरीत जल-पात्र के पवित्र गंगाजल में मदिरा-अंश का संयोजन करवाते हुये से निकृष्टतम पहलु का संरक्षण कर स्वयं त्याज्य प्रतीत होता है."


पर्ची पढ़ने के पश्चात एक नजर दीपक को देखा, वह निर्विकार बिल्कुल शांत बैठा था. मेरे मुख से अनायास यह मानस पंक्ति फिसल गयी,"स्वार्थ लागि करहि सब प्रीति, सुर, नर, मुनि, तनु धारि."
दीपक चौंका,"क्या?"


तब अपनी बात बदलते हुये मैंने पुनः एक मानस-चौपाई कहा,"काम, क्रोध, मद, लोभ कि जब तक मन में खान. तब तक पंडित मूर्खहु, तुलसी एक समान."


उसने मेरे चेहरे पर टकटकी लगा दिये और मेरी आँखों में झाँकने लगा. मानो मेरा मन पढ़ने की भरपूर चेष्टा कर रहा हो ताकि मेरे द्वारा बोले गये चौपाई का वर्तमान प्रसंगानुसार आशय समझ सके. तब मैं ने आगे कहा,"प्रतिफल प्राप्ति की कामना ही वास्तव में प्रत्येक संसारिक कर्म, धर्म और अधर्म की जननी है. फिर ईश्वर और सदग्रंथ के सम्बंध में एक व्यक्ति तभी कुछ जान सकता है, जब उस पर ईश्वर की असीम कृपा होती है. पुनः ईश्वर की महिमा से अभी तक कोई भी संभवत: अंश मात्र ही परिचित हो पाये. फिर किसी भी मजहब-सम्प्रदाय के संस्थापक, ऋषि-मुनि अथवा उनके धार्मिक पुस्तक अर्थात ग्रंथ, कुरान, पुराण, बाईबल इत्यादि कदापि उतने पूर्ण नहीं हुये कि ईश्वर-लीला के सम्बंध में उन्होंने जितना जाना उसका निष्कलंक और सटीक वर्णन अथवा निरूपण कर सकें. किंतु वैसे महापुरूष भी विरले ही होते हैं जो किसी ग्रंथ के सदतथ्य का अक्षरशः अनुपालन करते हों."


उसने स्वीकारिक्ति में अपना सिर हिलाया. तब मैंने आगे कहा,"महान गुरु और कूटनीति शास्त्र के रचयिता आचार्य चाणक्य भी कहते हैं कि वास्तव में विश्वास और अंधविश्वास में, धार्मिक कृत्य में और पाखंड में एक महीन विभाजक रेखा से फर्क हैं, अतः गहन विवेक प्राप्ति से पूर्व दोनों में फर्क मालूम करना अत्यंत कठिन है. किंतु श्री मानस कहते हैं कि जो अंतर्मुखी होकर प्रेम और धैर्य पूर्वक श्रीराम चरित मानस का अध्ययन एवं मनन करते हैं, उसके लिये हरि कृपा से उस पाखंड के पहचान हेतु वह समझ अत्यंत सहज और सुलभ है. क्योंकि श्रीराम चरित मानस के निरंतर मनन से मनुष्य मात्र में केवल सच्चे और सृजनात्मक गुण ग्रहण करने की प्रवृति प्राप्त होती है और उसमें जागृति आती हैं."


उसने पुनः स्वीकारिक्ति में अपना सिर हिलाया और मैं भी पुनः उसे उपदेशित किया,"फिर यह भी उचित है कि एक सज्जन को सदैव सद्गुण ही ग्रहण करना चाहिये, जैसा हंस करते हैं. फिर मानस के सदतथ्य के गूढ़ रहस्य आसानी से समझने के लिये सप्त-खंड मानस पियूष भी देखना उचित है."


वह झल्लाया,"अब चुप भी हो जाओ मित्र, मेरी कितनी धुलाई और करोगे? तुमने जितने भी उपदेश कहे, एक भी मेरे समझ में नहीं आया... भूखे भजन न होइहीं गोपाला, ले लो अपनी कंठी माला. उपदेश प्राप्ति से पहले मनुष्य का शांतचित्त और एकाग्र होना आवश्यक होता है. मेरे चित्त की शांति और एकाग्रता तो मेरी धुलाई के साथ ही फुर्र हो चुकी है."


अब मुझे यकीन हो गया कि उसके झल्लाहट के साथ ही उसके मन की सारी गुबार यानि कुंठा बाहर आ चुकी और वह पूर्ववत् अपना निर्मल हृदय प्राप्त कर चुका. मैंने उसे गले से लगा लिया. (सर्वाधिकार लेखकाधीन) 
 


तारीख: 10.07.2017                                    प्रदीप कुमार साह









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