बगीचे का भूत

“अरे चचा जल्दी चलिए, पूरा रात यहीं बिताने का मन है क्या?” 

“अरे चचा खा ही लिए हैं इतना की क्या चला जायेगा इनसे ?”

अब चचा भी वाक्-पटुता में किसी से कम कहाँ थे; कुछ भी हो महादेव मंदिर में पंडित थे . अपने संग चल रहे नव किशोरों के व्यंग बाण का उत्तर देना तो उनको बखूबी आता था .

“ बाबू ! जब जब तुम्हरे इतना थे न तो १ किलो दही और 75 ठो रसगुल्ला से पहले थमते नहीं थे और एगो तुमलोग है . क्या रे मुकेशवा ! दही तो खाया नही और 30 ठो रसगुल्ला में तुम बस बोल दिया ! जब खाना नहीं था तो इतना ठंडा में आने के लिए काहे बेकल हुआ जा रहा था ?”

“चचा को तो अभी फिर से खाने बैठा दिया जाये तो फिर से चाप के खायेंगे, क्यों चचा”

“ और नही तो क्या ? हाथ सूखा, ब्राह्मण भूखा “

और सभी दिशाएं ठहाकों से गूँज उठी .

चारो तरफ कोहरा था . पंडित महावीर झा अपने 4 भतीजों और एक भांजे के साथ साहपुर गाँव से वापस अपने गाँव बसौना जा रहे थे. दरअसल पंडित जी भोलानाथ मिश्र के पिताजी के श्राध का भोज खाने आये थे . गाँवों में जिनके पास पैसे हों वो श्राध में जैम कर खर्च करते हैं . वैसे तो सिर्फ गाँव में भोज होता है लेकिन पैसे वाले दुसरे गाँव वालों को भी आमंत्रित कर लेते हैं जिसे पाली कहते हैं . तो बस यही पाली के भोज का लोभ था जो पंडित महावीर झा को माघ महीने की रात में अपने रजाई की गर्मी से निकल 5 किलोमीटर दूर दूसरे गाँव जाने के लिए मजबूर कर चुका था .

हंसी ठिठोली का दौर चल रहा था . पंडित जी बोल पड़े-“ वैसे दीना मिश्र के घर में दोनों बुढा मरनाशन पर ही है . ये ठंडी तो निकल गया लेकिन लगता है अगले ठंडी में 2 ठो भोज और मिलेगा .”

“ दीना मिश्र कंजर है, ऊ अपने दियाद को खिला दे वही बहुत है . आप पाली तो भूल ही जाइए ”- पंकज ने तपाक से उत्तर दिया. 

बातों बातों में साहपुर गाँव ख़त्म होने को आया . सामने कुछ 500 मीटर तक कुछ एक आम- गाछी (आम के बगीचे) थे . उसके बाद एक नहर फिर अपना गाँव . रात के करीब 8 बज रहे होंगे . माघ का महिना था तो ठण्ड होना तो स्वाभाविक ही था लेकिन जोर से चल रही पछुआ हवा ने तो जैसे हड्डियों को भी सिहरा दिया हो .

“ मामा वैसे सुने हैं इस गाछी में एक बेताल रहता है . बच्चा भाईजी एक दिन देखे भी थे “

“ अरे बेताल हो की पिशाच, पंडित महावीर प्रसाद से सब 5 कोस दूर ही रहता है . मालूम है न, मंत्र विधि से मेरा शरीर कवच से ढका है . कोई हवा बयार मेरा शरीर छू नही सकती . काशी में 5 साल झक नहीं मारें हैं . हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका घाट पर जब रात में 12 बजे सिद्धि करते थे न तब एक से एक बेताल – पिशाच निकलता था . बाबू ! 100 भूत के एक भूत हम ही हैं . तुमलोग महादेव के भक्त के साथ रहकर भूत से डरता है रे . छी छी .” अब ये लोग अपने गाँव में घुसने ही वाले थे . सामने करीब 50 मीटर पर सडक मुड़ जाती है और उस मोड़ से करीब 20-25 मीटर दूर नहर . रात हो चुकी थी इसलिए चन्द्रमा की हलकी से रौशनी और मुकेश के हाथ का टोर्च, रौशनी के बस ये ही दो साधन थे . अभी ये लोग मोड़ के तरफ बढ़ ही रहे थे की पंकज का ध्यान मोड़ के पास सड़क के किनारे की ओर गया .

“ अरे ! वो कोई आदमी बैठा है क्या सड़क के किनारे “

“कोई पेशाब कर रहा होगा”

उन्होंने देखा कोई धुंधली सी काया दिख रही है . ऐसा लगता है जैसे कोई आदमी कम्बल ओढ़े बैठा हो . पहले तो सबको लगा की बस मूत्र विसर्जन करके वो चला जायेगा लेकिन जब उस काय में कोई हलचल नही दिखी तो सबका माथा ठनका . तीन चार मिनट तक सबने इंतज़ार किया पर फिर भी जब कोई हलचल न हुई तो सबने समझ लिया की कुछ तो गड़बड़ है . मुकेश से न रहा गया तो उसने टोर्च उस काया की ओर किया . पंडित जी ने चिल्ला कर कहा –“ पगला गए हो क्या ? पता नहीं क्या होगा , किसी भी चीज़ पे टोर्च मार देते हो”

टोर्च की रौशनी में क्षण भर के लिए जो दिखा वो सबके होश उड़ाने के लिए काफी था . एक अजीब सा प्राणी प्रतीत हुआ . कुछ ४ फुट के आस पास का लगा . ऐसा लगा जैसे उसके शरीर पर सफ़ेद और काले रंग की पट्टियां बनी हो . ये तो कोई आदमी नही, ये तो कोई भूत ही है . अब तो जैसे सबको सांप सूंघ गया हो . भूतों के बारे में हंसी ठिठोली करना एक बात है, उससे साक्षात् आमना-सामना होना अलग .कुछ देर तक विस्मित रहने के बाद पंकज ने कहा- “ चलिए लौट चलते हैं. रात इसी गाँव में काट लेंगे, सवेरे होते ही अपने गाँव को चल पड़ेंगे .”

“ लेकिन अब भूत ने हमे देख लिया है, उसको पीठ नही दिखा सकते हैं, ऐसा मैंने सुना है .”

5 मिनट तक सोचने के बाद मुकेश बोला- “ चचा आप तो पहुचे हुए पंडित है, काशी में साधना कर चुके हैं . आप ही कुछ कीजिये इस भूत का”

“अरे पागल ! काशी की बात कुछ और थी . अभी हम तैयार नही है . एक तो हमारा शरीर जूठा है, शुद्ध नही है. अभी भूत से दूर रहने में ही बुद्धिमानी है “

“ लेकिन चचा आपका शरीर तो मंत्र से बंधा है. आपके साथ ही बगल से निकल चलते हैं . आपके साथ रहे तो भूत पास थोड़ी आएगा .”

“ आना तो नही चाहिए, लेकिन ये कलयुग है . जिन्दे आदमी का तो भरोसा नही, भूत का क्या भरोसा . क्या पता कहीं आ ही जाये .”

इसी उधेरबुन में थे सभी की दूर से ढोल नगाडो की धीमी सी आवाज़ आयी . ऐसा प्रतीत हुआ की उनके गाँव से कुछ लोग नहर की ओर बढ़ रहे हैं . कुछ 40-50 लोग होंगे . कुछ लोग हाथ में लालटेन और पेट्रोमेक्स पकडे हुए थे . देख कर जान पड़ता था की शायद मुसहर टोले से कोई बारात आ रही थी . धीरे धीरे नहर तक आ गयी . अब वो उसी मोड़ के तरफ आ रहे थे . पंडित के तो मानो प्राण पखेरू उड़ गए थे . वो बाकी लोगों के ओट में जाकर पालथी लगाकर बैठ गए और छुप छुपकर भूत और उसके तरफ बढ़ते बारात को भी देख रहे थे . 

“आज तो पता नही कौन भूत के कोप का भाजन बनेगा”- पंडितजी के आवाज़ से भय साफ झलक रहा था . जैसे जैसे बारात भूत की तरफ बढ़ रही थी, पंडितजी और उनके भतीजों-भांजों का डर भी बढ़ रहा था . आखिर उस मोड़ पर बारात रुकी . इन लोगों ने भी रौशनी में उस भूत को देखने की कोशिश की . देखा तो भूत नाम की कोई चीज़ नही . हाँ एक पत्थर जैसी चीज़ जरुर थी .पास जाकर देखा तो एक पुराना मील का पत्थर था . इस सड़क पर कुछ अंतराल पर ऐसे मील के पत्थर सालों पहले लगाये गए थे जो राह चलते मुसाफिरों को ये बताते थे की उनकी मंजिल अब कितनी दूर है . और आज इसी मील के पत्थर ने लोगों को रास्ते पर आगे बढ़ने से रोक दिया था . अजीब सा सन्नाटा रहा कुछ देर . समझ नही आ रहा था की हुआ क्या . लोग ठगे महसूस कर रहे थे साथ ही एक अजीब से चैन का अनुभव भी कर रहे थे मानो मौत के मुख से निकल कर आ रहे हों .

“ चलिए चचा ! डरने की कोई बात नही . भूत नही है “

“हुह ! पंडित महावीर झा को कौन भूत डरा सका है आज तक . मैंने बोला तो था की पता नही आज कौन भूत आ गया पंडित महावीर झा के कोप का भाजन बनने”

लड़कों ने एक दुसरे को देखा . हल्का सा मुस्कुराये और बोले- “ चलिए चलिए जल्दी पहुँच कर सोया जाये . इतना खाया है तो पचाने में भी तो वक़्त लगेगा”


तारीख: 06.06.2017                                    कुणाल









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