वो भी क्या दिन थे

रमिया,जिसका वैसे तो नाम रमेश है,लेकिन प्यार से लोग उसे रमी या रमिया कहतें हैं,बहुत ही सीधे
सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं। उनकी पत्नी शान्ति व तीन बच्चें हैं,दो बेटियाँ रंजना व संजना एवं एक बेटा
है हेमराज। पत्नी व बच्चें,रमिया के उलट हैं,एकदम लंपट व धूर्त इसलिए आप समझ ही
सकतें हैं कि रमिया का परिवार कैसा होगा। पत्नी तो कर्कशा व लड़ाका,हरसमय उसकी
जुबान से या तो मिर्च झड़ती या फिर नीम व करेला। रमिया इनसे दूरी बनाने में ही अपनी
भलाई समझता।
रमिया को अपने गाँव से शहर आए हुए यूँ तो पचपन बसंत बीत चुके हैं,पर वह आज
भी अपनें गाँव को नही भूल पाया है।
सत्रह वर्ष का था जब रमिया अपना गाँव छोड़ शहर चला आया था,शहर की चमक-धमक से
प्रभावित होकर। बचपन से ही पिक्चरों में शहर का आकर्षण उसको,रमिया को अपनी ओर
खींचता और एक दिन वह अपने आप को रोक नही पाया और ईजा-बाबू व परिवार के अन्य
सदस्यों को रोता-बिलखता छोड़ भाग आया शहर, अपना गाँव छोड़कर,तब से वो दिन है वो
शहर के संघर्षों में ऐसा उलझकर रह गया कि कभी पलटकर गाँव नही जा पाया; परन्तु हाँ
वह गाँव को कभी भूल भी नही पाया।
रमिया अपना समय घर में कम ही बिताता है। सुबह भोर होते ही घर से निकल जाता है
अपनी छोटी सी चाय की दुकान में और रात ग्यारह बजे दुकान बढ़ा कर घर पहुँचता है। तब
तक बीबी-बच्चें खा-पीकर गहरी निद्रा में सो जातें और जब तक वो उठातें रमिया दुकान को
निकल चुका होता। रविवार का दिन रमिया के लिए ऐसा होता मानो अंग्रेजी सरकार द्वारा दी
गयी कालापानी की सजा। एक-एक पल उसे सदियों समान लगतें।
रोज की तरह आज भी रमिया दुकान को निकला है। दुकान खोलकर अभी बैठा ही है कि
तभी एक व्यक्ति,जिसकी उम्र महज पैसठ-सत्तर के आसपास की रही होगी, सामान्य कद-
काँठी,गेहुआँ रंग व सामान्य व्यक्तित्व, उसकी दुकान में चाय पीने के लिए आकर बैठ गया,
रमिया चाय बनाने की तैयारी में लग गया। तभी उस व्यक्ति का मोबाइल बजने लगा,उसने
फोन उठाया और कुमाऊँनी में वार्तालाप करने लगा। इस सुदूर परदेश में कोई अपनी गाँव की

भाषा में बात कर रहा हो तो मन का गदगद होना तो स्वाभाविक है; रमिया का भी कुछ यही
हाल रहा।
रमिया सत्रह साल की उम्र में घरवालों को रोता बिलखता छोड़ घर से बहुत दूर मुम्बई
आ गया और तब से यहीं का होकर रह गया।यहीं उसकी मुलाकात एक मराठी लड़की से हुई,
उनका प्यार परवान चढ़ाञ, परिणति स्वरूप तीन बच्चें हुए। शनैः-शनैः समय के साथ प्यार
का बुखार भी उतर गया। घर से बिल्कुल अलग रमिया मुम्बई में भीड़ के बीच में रहते हुए
भी अकेला है कहने को तो उसका भरा-पूरा परिवार है,;परन्तु परिवार को रमिया की कोई
चिन्ता होती है लगता नही। रमिया के पास अगर कुछ बचा है,जीने के लिए,तो वह है,
उसकी चाय की दुकान और उसके गाँव की अतीत की स्मृतियाँ।
आज अचानक मुम्बई शहर में उसकी दुकान पर आए हुए उस ग्राहक रूपी व्यक्ति को
कुमाऊँनी भाषा में बात करते देख उसका गदगद हो जाना स्वाभाविक था।
उधर उस व्यक्ति की मोबाइल पर वार्ता का समापन हुआ और इधर रमिया की चाय
बनकर तैयार हो गयी,उस व्यक्ति के लिए रमिया ने खास पहाड़ी स्टाइल की चाय तैयार
कर उस के सामने टेबल पर रख दिया।
चाय पीकर वह व्यक्ति गदगद हो कहने लगा,”इस चाय ने तो मुझे अपनें पहाड़ की याद
दिला दी।“
रमिया कहने लगा,” को गौं भै तुम्हार?” (कौन सा गाँव हुआ तुम्हारा)
रमिया को कुमाऊँनी भाषा में बात करते हुए देख उस अपरिचित को बड़ा आश्चर्य हुआ कि
पहाड़ से इतने दूर मुम्बई में भी कोई कुमाऊँनी भाषा में बात कर रहा है।
“अल्मोड़ भै म्यार गौं,तुम ल पहाड़ी भया!”(अल्मोड़ा हुआ मेरा गाँव ,आप भी पहाड़ी हो!) वह
व्यक्ति चाय पीते-पीते कहने लगा।
“हो भुला”!मैं ल पहाड़ी भयी”(हा भुला मैं भी पहाड़ी हुआ।)रमिया कहने लगा आज पचपन
साल बाद वह किसी से पहाड़ी भाषा में बात कर रहा था,उसका मन तो मानों वापस अपनें
पहाड़ अल्मोड़ा वापस चले गया।
“को गौं भ्यै तुम्हार”?(कौन सा गाँव हुआ तुम्हारा)वह व्यक्ति रमिया से पूछने लगा।
“अल्मोड़ गौं भै म्यार ल”(अल्मोड़ा गाँव हुआ मेरा भी( रमिया ने उत्तर दिया।
ओ हो! अल्मोड़ा क भया आपण..! ( ओ हो!अल्मोड़ा के हुए आप!)रमिया खुशी के मारे
चहकने लगा। “मैं ले अल्मोड़ा क भयी।“ ( मैं भी अल्मोड़ा का हुआ)

“अल्मोड़ काँभै तुमहार गौं?”(अल्मोड़ा तुम्हारा गाँव कहाँ हुआ),हिमांशु हर्षविस्मृत प्रसन्नता के
साथ रमिया से पूछने लगा।
“पनिउडार में भो”,(पनियांउडार मे हुआ) रमिया ने बताया।
“यार पनिउडार तो म्यार ल घर छू,बाबू क नाम कै भौ तुम्हार!”(यार पनियांउडार तो मेरा भी
घर हुआ ,आपके बाबूजी का क्या नाम हुआ) उत्सुकतावश हिमांशु रमिया से पूछने लगा।
“नन्दाबल्लभ तयाड़ज्यू भौ! मेरे बोज्यू क नाम!”(मेरे बाबूजी का नाम नन्दाबल्लभ तिवाड़ी
हुआ) रमिया कहने लगा।
“ओ हो नन्दाबल्लभज्यू भाव भाया आपुण!”,(ओ हो नन्दाबल्लभ जी के पुत्र हुए आप) हिमांशु
चकित हो कहने लगा। मैं तो तुम्हार पड़ोस मे छ्यू जयदत्त पाण्डेज्यू क भाव भयीं।(मैं भी
तुम्हारा पड़ोसी हुआ,जयदत्त पाण्डे जी का सुपुत्र)
“ओ हो आपुण जयाकाका ख्याल बयां!”,( अच्छा तो आप जयचाचा के सुपुत्र हुए),रमिया खुशी
से चहकता हुए बोला।
“अच्छा बोम्बे में काँ रूँछा”(अच्छा आप बम्बई में कहाँ रहतें हैं) रमिया ने हिमांशु से पूछा।
“यार मलाड में रूनू,आपुण भौ दगड़ी”,भाऊ मैनेजर छु ताज होटल में वई मलाड में उको
होटल बटी बंगल मिल रख,तो उनर दगण रूनु।या बोम्बे में च्याल ब्वारी,और उनर एक भाव
छु तो मैले उनर दगण मेआ रूण लाग रयूँ, हो महाराज।“(यार मलाड में अपने बेटे,बहु व
नाती के साथ रहता हूँ । बेटा होटल ताज में मैनेजर सो होटल वालोँ ने ही बंगला दे रखा
है,इसलिए उनके ही साथ रहता हूँ, हिमांशु ने रमिया को बताया।)
“और सुणों हो महाराज आपुण काँ रूँछा याँ बोम्बे में?” ( और सुनाओ आप यहाँ कहाँ रहते
हैं) हिमांशु ने रमिया से पूछा ।
रमिया ने कहा,” याँ बिरार क एक चॉल में रूनू हो महाराज।“(यही बिरार की एक चॉल में
रहता हूँ।)
“और भौ कदुक छन आपुण”(और आपके परिवार में कितने बच्चे है)”, हिमांशु ने फिर पूछा।
“तीन भौ भै,एक च्यार द्वी चैली”(तीन बच्चें हैं,दो लड़कियाँ व एक लड़की)
इस तरह से हिमांशु हर रोज रमिया की दुकान में आ जाता,सुबह से शाम तक वहीं बैठकर
रमिया के साथ ढेरों बातें पहाड़ की बताते रहता। रमिया का समय भी अच्छा व्यतीत होता
दुकान पर।

एक दिन हिमांशु, रमिया की दुकान में आया,रोज की ही तरह दोनों बातों में व्यस्त थें ;
बातों ही बातों में हिमांशु कहने लगा,” यार रमिया मैं तो नानतिन क साथ अलाम्वाड़
जाँड़्यूँ”,श्राद्ध खतम ह्य गयीन;अब नवरात्र लागड़ लाल छैन; मेल नानतिनान धी कौ; यै बार
नवरात्र में घर जानु,वाँ बेटी गंगोलीहाट ल जाण क सोचड़ियाँ,देखो ज्यस देवीक हुक्म।“(यार
रमिया हम अल्मोड़ा जा रहें हैं, मैने इस बार बच्चों से कहा इस बार पहाड़ अल्मोड़ा जाने को
वैसे भी श्राद्ध खत्म हो चुके हैं, नवरात्र भी आनें वालीं है वहीं से सोच रहा हूँ
हाटकालिका(गंगोलीहाट) के भी दर्शन कर आएँगे ; बाकि देखो माता का क्या आदेश है।)
रमिया उदास हो कहने लगा,”अब कब होली मुलाकात?”(अब कब होगी मुलाकात)
“देखो पें कब उँड़ हूँ अब”।(देखों!अब कब आना होता है।)ये कहकर हिमांशु चुप हो गया।
रमिया कहने लगा,” यार तेरे को याद है अल्मोड़ा की रामलीला बाईगोड क्या दिन होते थें!
महिनों से हम रामलीला की प्रतीक्षा करतें थें। विद्यालय में भी दस दिवसीय अवकाश हो
जाता था। हम सभी लोग दिनभर पूरे मुहल्ले में घुम-घुम कर लोगों से पूछते फिरते थें कि
रामलीला देखने चलोगे। पूरे मुहल्ले में लोगों में एक अलग ही उत्साह रहता था हो याद ही
होगा।शाम की प्रतीक्षा होने वाली ठहरी शाम हुई घर का एक सदस्य बोरी या टाँट लेकर
रामलीला मैदान में जाकर जगह घेर लेने वाला हुआ; बाकि सदस्य देर रात को आने वाले हुए
मूँगफली,गुड़,रेवड़ी आदि लेकर फिर देर रात तक रामलीला देखनी मूँगफली,गुड़, रेवड़ी इत्यादि
खानी ।रामलीला के समापन के पश्चात घर आना और फिर दिनभर उन पात्रों में खो जाने
वाले ठहरे। रामलीला का समापन होने पर दीपावली की तैयारी।इस बॉम्बे में कहाँ ये सारी
चीजें दिखने वाली हुई; बस परदेश में दिन काटने ठहरें। ना अपने लोग, ना अपनी भाषा, ना
अपनी संस्कृति। बस ऐसा लगता है कहाँ आ गये इस परदेश में ।यार बहुत याद आता है
अपना पहाड़,अपनें लोग,अपनी भाषा,अपनी संस्कृति, अपनें संस्कार। बस सत्रह साल की
अवस्था में शहरी चकाचौंध के चक्कर में यहाँ क्या आया बस यहीं का होकर रह गया।
परिवार भी अपना कहाँ लगता है। पत्नी मराठी हुई अपनी मराठी में बोलती है। बच्चों का
क्या माँ के रंग में रंगे रहतें हैं। बस रह गया मैं इस परदेश में अकेला और तन्हा।“ कहते-
कहते रमिया का स्वर भर्राने लगा और सहसा आँखों से आँसू बहने लगे।
“वो भी क्या दिन थे रे हिमांशु! काश वो दिन फिर लौट आतें!” रमिया रुआंसा होकर
कहने लगा।
“मैं तो यहीं कहूँगा उन युवाओं से व युवतियों से कि शहरी चकाचौंध में आकर या किसी के
बहकावे में आकर अपनी जड़ों को ,अपने लोगों को कबी मत छोड़ना। शायद तुम सब कुछ पा

भी जाओ,अपनें सपनों को पूरा कर भी जाओ;परन्तु अंततःअपनी मिट्टी, अपनी जड़ें, अपने
लोग,अपनें त्यौहार व अपनी संस्कृति हमें बुलाती है हम लौट तो नहीं पातें,पर हाँ यह जरूर
कहतें हैं,” वो बी क्या दिन थें। जैसे मैं आज कह रहा हूँ वो भी क्या दिन थें


तारीख: 04.02.2024                                    हिमांशु पाठक









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